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लखनऊ 31 अक्टूबर 2017: रिहाई मंच ने भोपाल फर्जी मुठभेड़ की बरसी पर जारी रिपोर्ट में आतंकवाद के नाम पर भोपाल सेन्ट्रल जेल में बंद कैदियों को भाजपा सरकार के इशारे पर जेल में यातना देकर साजिशन मारने का आरोप लगाया है।
रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि 31 अक्टूबर 2016 को प्रतिबंधित संगठन सिमी से जुड़े होने के आरोप में भोपाल जेल में बंद 8 आरोपियों को भोपाल के बाहरी इलाके में फर्जी मुठभेड़ में मार डाला गया था। यह 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत में मुसलमानों के प्रति प्रशासनिक और सरकारी अपराधों में आए उछाल को रेखांकित करने वाली बड़ी घटना है। इस घटना ने मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार और प्रशासन की मुस्लिम विरोधी कार्यशैली को शिद्दत से उजागर किया। यह भी साबित किया कि विपक्षी दलों ने भाजपा सरकार की इस मुस्लिम विरोधी राजनीति का विरोध करने का साहस नहीं है। सबसे अहम कि शिवराज सिंह सरकार इस पूरे मामले में बिना किसी खास परेशानी से आसानी से बच निकली। न तो किसी अदालत ने उससे इस फर्जीवाड़े पर सवाल पूछा और न ही विपक्षी दलों ने इसे राजनीतिक मुद्दे के बतौर उठाकर सांप्रदायिक हिंदू वोटरों को नाराज करने का जोखिम उठाया। यह दोनों बदलाव संकेत हैं कि मुसलमान ऐसे किसी संकट के समय भी अब राजनीतिक या सामाजिक हस्तक्षेप की उम्मीद छोड़ दे। यह बदलाव मुसलमानों को राजनीतिक और नागरिकीय तौर पर अप्रासंगिक बना देने के संघ परिवार और भाजपा के प्रयासों का चक्र पूरे हो जाने की घोषणा है।
भोपाल सेन्ट्रल जेल में यातनाओं का दौर जारी है
भोपाल फर्जीं मुठभेड़ को एक साल हो गया है पर आज भी सुरक्षा के नाम पर रात के पहर में आतंकवाद के आरोप में बंद हर कैदी को ‘मैं हाजिर हूं’ बोलना पड़ता है। ऐसा न करने पर पिटाई शुरू हो जाती है। यह टार्चर की वो प्रक्रिया है जिसके तहत व्यक्ति को सोने नहीं दिया जाता, मानसिक-शारीरिक रूप से कमजोर कर मौत के मुहाने पर धकेल दिया जाता है। यह रणनीति भोपाल जेल में बदस्तूर जारी है।
अबकी बार भइया दूज की मुलाकात को कैंसिल कर दिया गया और कहा गया कि ऐसा आईबी एलर्ट के चलते किया गया। जेल प्रशासन महिला परिजनों पर बुरके को हटाने का लगातार दबाव बनाता है। कभी-कभी तो जबरन भी हटा देते हैं।
रिहाई मंच ने भोपाल जेल में सिमी के सदस्य होने के आरोप में कैद आरोपियों पर जेल प्रशासन द्वारा बर्बर पिटाई और हत्या करने की साजिश का आरोप लगाया है। भोपाल जेल में बंद आरोपियों के परिजनों द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के आधार पर कहा है कि पिछले साल 31 अक्टूबर 2016 को भोपाल में हुए फर्जी मुठभेड़ जिसमें 8 आरोपियों की पुलिस ने हत्या कर दी थी, के बाद से ही बाकी बचे आरोपियों को मारा-पीटा जा रहा है। पिटाई का यह क्रम हर दूसरे-तीसरे दिन होता है जिसमें जेल अधिकारी हत्या, बलात्कार और डकैती जैसे मामलों में बंद कैदियों से एक-एक आरोपी को लाठी और डंडों से पिटवाता है और उनसे ‘जय श्री राम’ का नारा लगवाता है। पिटाई के दौरान उनसे अल्लाह और मुसलमानों को अपशब्द कहने के लिए कहा जाता है जिससे इनकार पर उन्हें और बुरी तरह मारा-पीटा जाता है।
परिजनों से आरोपी बताते हैं कि उन्हें पिछले साल की फर्जी मुठभेड़ के बाद से ही पुलिस द्वारा किसी भी दिन फर्जी मुठभेड़ में मार देने की धमकी दी जाती रहती है। कहा जाता है कि सरकार उन्हीं की है- वो जो चाहे, कर सकते हैं। फर्जी एनकांउटर के बाद से ही उनके खाने में कटौती कर दी गई और पानी भी दिन भर में सिर्फ एक बोतल दिया जा रहा है जिससे कैदी पीने और शौच करने से लेकर वजू करने तक का काम करने को मजबूर हैं। यह पानी भी उन्हें तब नसीब होता है जब वे जय श्रीराम का नारा लगाते हैं। ऐसा न करने पर उनकी फिर पिटाई की जाती है। अब्दुल्ला ने जब जय श्रीराम का नारा नहीं लगाया तो उसके नाखून निकाल लिए गए और साजिद के सिर को दीवार से दे मारा गया।
परिजनों से सलाम करने की भी मनाही से जेल प्रशासन की मुस्लिम विरोधी मानसिकता को समझा जा सकता है। हमारे देश में अभिवादन के बहुतेरे क्षेत्रीय और सामुदायिक तरीके हैं लेकिन भोपाल जेल में सलाम करने तक पर मनाही है। यहां आरएसएस का जेल मैन्युअल चलता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से शिकायत करने के बाद भी उनकी पिटाई नहीं रुकी। यातना का यह सिलसिला खुद जेलर की देखरेख में होता है। जेलर फिल्मी अंदाज में डायलाग बोलता है- जब तक मेरे हाथ में डंडा घूमता है तब तक पीटते रहो। हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि उन्हें नहीं लगता कि यहां से जिन्दा निकल पाएंगे। न जुल्म बंद होगा और न रिहाई मिलेगी।
भोपाल जेल में बंद अबू फैसल को इतना पीटा गया कि उसके पैर में फ्रैक्चर हो गया। इकरार शेख ने भोपाल हाईकोर्ट में हलफनामा दिया है कि उनके दाढ़ी के बाल नोचे जा रहे हैं तथा सर के बाल आधे काट दिए गए हैं, उनके पैरों के तलवों पर बुरी तरह मारा जाता है। उनकी आखिरी आस अदालत से है और वह भी उनकी बात सुनने से इनकार कर देती है और उन्हीं पर दोष मढ़ देती है। नागरिक संगठनों ने जब इस पर सवाल उठाया तो भोपाल जेल प्रशासन ने मीडिया के माध्यम से उसके पैर फ्रैक्चर होने की कहानी को जेल से भागने की कहानी बताकर मामले को संवेदनशील बनाने की कोशिश की। अपनी ही कहानी में उलझते अधिकारियों ने कहा कि उसने खाने-पीने व अन्य सुविधाओं की मांग को लेकर दबाव बनाने के लिए सींखचों में अपना पैर फंसाकर तोड़ लिया।
इकरार शेख ने वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए बताया था कि जेल अधिकारी उसे रोजना मारते हैं। उसे अपने धर्म के खिलाफ नारे लगाने को मजबूर किया जाता है। इकरार शेख को यह बयान देने के बाद जेल में दुबारा पीटा गया जिसकी सूचना उसने मुलाकात के दौरान अपने परिजनों को दी है। मुलाकात के दौरान कैदियों पर यह दबाव भी डाला जा रहा है कि वे परिजनों से अपने टार्चर की बात नहीं बताएं नहीं तो उन्हें मार दिया जाएगा। इनामुर्रहमान ने 6 मई 2017 को जेल में दी जा रही यातना पर सेशन कोर्ट को हलफनामा द्वारा अवगत भी कराया है। शराफत के मुंह पर चोट के जख्म थे, जब उसके परिजनों ने पूछा तो वह उसे टाल गया।
परिजनों को पहले 8 दिनों में दो बार 20-20 मिनट के लिए मुलाकात कराई जाती थी लेकिन अब जेल मैन्युअल के खिलाफ जाते हुए उन्हें 15 दिनों में सिर्फ 5 मिनट की मुलाकात कराई जा रही है। यह मुलाकात भी फोन के जरिए होती है। जिसमें कैदी और परिजन के बीच में जाली और शीशा होता है जिन्हें फोन लाइन से कनेक्ट कर बात कराई जाती है और बात की रिकार्डिंग का आरोप भी कैदी और परिजन बराबर लगाते रहते हैं। यह आरोप इसलिए सही भी है कि जब भी कैदी जेल में हो रही यातना के बारे में बताते हैं तो उसके बाद उस बात को लेकर उनकी पिटाई की जाती है और आइंदा से ऐसी हरकत न करने की धमकी दी जाती है। जैसे ही पांच मिनट होता है कैदी को परिजनों के सामने घसीटते हुए अंदर ले जाया जाता है जिससे उसके परिजनों को जाते-जाते भी उनके हालात और उनकी कुछ मदद न कर पाने की लाचारी अन्दर ही अन्दर उनको खाती जा रही है। परिजनों की शिकायत है की उन्हें जेलर से मिलने नहीं दिया जाता।
उन्हें जेल मैन्युअल के खिलाफ जाते हुए 24-24 घंटे तक बंद रखा जा रहा है। परिणाम यह कि कैदी दिमागी संतुलन खोते जा रहे है। उज्जैन के आदिल मानसिक रुप से काफी बीमार हैं पर उनका इलाज नहीं कराया जा रहा है। मुकदमे को टालने से लेकर मुलाकात की समय सीमा घटाने और ठंड में सिर्फ एक कम्बल देना, इन विचाराधीन कैदियों को मानसिक और शारीरिक तौर पर कमजोर करके धीरे-धीरे मारने की साजिश है।
मोहम्मद इरफान को अपनी आँख का इलाज करवाना है पर जेल प्रशासन उसका कोई सहयोग नहीं कर रहा। इसे लेकर उन्होंने 16 जनवरी 2016 को चीफ जस्टिस आफ इंडिया के नाम पत्र भी भेजा है।
एनकाउंटर पालिटिक्स
भोपाल जेल में सिमी से जुड़े होने के आरोप में लगभग 30 लोगों को रखा गया था। इसमें से लगभग सभी के मामलों में अनावश्यक देरी सिर्फ इसलिए की जा रही थी कि उनके खिलाफ कोई ठोस सुबूत नहीं थे और वे मुकदमों से बरी होने की स्थिति में थे। जाहिर है ऐसी स्थिति में मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार के लिए अपने कथित राष्ट्रवादी चेहरे को बचा पाना जहां मुश्किल था वहीं मुस्लिम विरोधी जनमत को संतुष्ट किए रखना भी मुश्किल हो जाता। लिहाजा, जेल प्रशासन, पुलिस और एटीएस ने मध्य प्रदेश सरकार के लिए वही किया जो तेलंगाना में आतंकवादी होने के आरोप में बंद लेकिन जल्दी ही छूटने वाले 5 मुस्लिम कैदियों के साथ किया गया था।
इस रणनीति के तहत आठ लड़कों अमजद रमजान खान, जाकिर हुसैन, शेख महबूब, मोहम्मद सालिक, मुजीब शेख, अकील खिल्जी, खालिद अहमद और मजीद नागोरी को पहले तो मीडिया के जरिए जेल से भाग जाने की अफवाह फैलवाई गई कि इन्होंने जेल के सिपाही रमाशंकर यादव की चम्मच और खाने की प्लेट से हत्या कर दी और फरार हो गए। इसके बाद इन्हें मुठभेड़ में मार देने की घोषणा कर दी गई।
तैयारी पहले से थी
इस पूरे नाटक में सबकी भूमिका पहले से ही तैयार कर ली गई थी। जहां पुलिस और एटीएस को इन्हें मारना था, वहीं गांव के करीब हजारों लोगों की भीड़ जुटा कर पूरे नाटक को एक वास्तविक रूप देने की कोशिश भी करनी थी। भीड़ में अधिकतर भाजपा समर्थक थे और ‘पाकिस्तान-मुर्दाबाद’, ‘हिंदुस्तान जिंदाबाद’, ‘भारत माता की जय’ ‘आतंकवाद मुर्दाबाद’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगा रहे थे।
इस तैयारी का ही परिणाम था कि पूरा प्रशासन सरकार की इस अतिमहत्वकांक्षी योजना को मानिटर करके अपनी-अपनी भूमिका के लिए पूर्णांक पाने की होड़ में था। स्थानीय लोगों की भीड़ और हत्यारे पुलिसकर्मियों में अतिआत्मविश्वास के चलते वहां बहुत सारे लोगों को मुठभेड़ के इस नाटक का वीडियो भी बनाने दिया गया। इसके चलते यह पूरा मामला ही लीक हो गया।
वीडिया क्लिप जो मुठभेड़ को फर्जी साबित करती है
घटना के चंद घटों के अंदर ही वायरल हुए वीडियो में साफ देखा गया कि न सिर्फ मारे गए लोग निहत्थे थे, बल्कि उन्हें बहुत पास से जानबूझकर हत्या करने के इरादे से मारा गया। इसके अलावा वीडियो से यह भी जाहिर हुआ कि मारने के दौरान हत्यारे पुलिस और एटीएस कर्मियों के बीच आपस में और अपने उच्च अधिकारियों से फोन पर भी बात कर रहे थे जिसमें उन्हें इन लोगों को मार देने और जिंदा नहीं छोड़ने का निर्देश दिया जा रहा था।
आडियो क्लिप
इसके चंद दिनों बाद ही मध्य प्रदेश पुलिस कंट्रोल रूम का एक आडियो क्लिप भी वायरल हुआ जिसमें पुलिस अधिकारियों को फर्जी मुठभेड़ में हत्याओं को अंजाम दे रहे पुलिसकर्मियों को निर्देशित करते हुए साफ सुना जा सकता है कि उन्हें उन लोगों को कैसे मारना है। इस बातचीत में इन हत्याओं के बाद एक दूसरे को बधाई देते हुए भी ‘पराक्रमी जवानों’ को सुना जा सकता है।
पुलिसिया दावों में अंतर्विरोध
वैसे तो यह मामला प्रथम दृष्टया फर्जी साबित हो गया था। इसमें शुरू से ही कई अहम अंतर्विरोधी दावे सामने आए जिसने गढ़ी गयी कहानी को और अधिक हास्यास्पद बनाने का ही काम किया। मसलन, जहां भोपाल आईजी योगेश चौधरी ने दावा किया कि वे जवाबी फायरिंग में मारे गए तो वहीं प्रदेश के एटीएस चीफ संजीव शर्मा ने बताया कि मारे गए लोगों के पास कोई हथियार नहीं थे, वे निहत्थे थे।
इसी तरह पुलिस के आला अधिकारियों में कैदियों के भागने, कान्सटेबल यादव की चम्मच और प्लेट से हत्या, ताले के लकड़ी की चाभी से खोले जाने और उस खास दिन और समय में सीसीटीवी कैमरों के अचानक ठप्प हो जाने के संदर्भ में दिए गए अलग-अलग और अंतर्विरोधी बयान इसे फर्जी साबित करने के लिए पर्याप्त थे।
वीडियो और आडियो क्लिप के वायरल हो जाने और पुलिस और एटीएस के बीच अंतर्विरोधी दावों के बाद प्रदेश सरकार पर कुछ दबाव जरूर पड़ा। लेकिन इसके बावजूद उसे कोई खास दिक्कत नहीं हुई क्योंकि केंद्र सरकार, संघ परिवार, मीडिया के एक हिस्से समेत भाजपा के जनाधार बहुसंख्यक समुदाय के एक बड़े हिस्से ने इसे जायज ठहराया।
जांच का नाटक
इस फर्जी मुठभेड़ की पोल खुल जाने के बाद सरकार ने डैमेज कंट्रोल के तहत एसके पांडेय के नेतृत्व में एकल जांच आयोग 7 नवम्बर 2016 को गठित किया। आयोग ने 5 दिसम्बर से काम करना शुरू किया और उसने पूरे 9 महीने लेकर 24 अगस्त 2017 को 12 पृष्ठों की उसी तरह की रिपोर्ट सरकार को सौंपी जैसी सरकार की जरूरत थी। जांच रिपोर्ट में पुलिस के दावे को सही मानते हुए मुठभेड़ को वास्तविक बताया गया।
इस रिपोर्ट पर पीड़ितों के वकील परवेज ने मीडिया को बताया कि कैसे पूरी जांच मजाक थी। गवाहों से सवाल पूछने का मौका ही नहीं दिया गया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं दी गई। सबसे अहम कि मामले में दर्ज एफआईआर तक देखने को नहीं दी गई। उन्होंने यह भी बताया कि जांच के दौरान उन्हें उस टूथ ब्रश, लकड़ी की चाबी, चम्मच और खाने की प्लेट भी नहीं देखने को दी गई जिससे कथित तौर पर पुलिस के मुताबिक मारे गए लोगों ने जेल का ताला खोला था और एक कान्सटेबल की हत्या भी की थी।
चौहान के पांडे जी
लेकिन यहां यह जानना रोचक और महत्वपूर्ण होगा कि एस के पांडेय साहब क्या चीज हैं और उन्हें क्यों इस काम के लिए चुना गया?
मध्य प्रदेश के पूर्व एडवोकेट जनरल आनंद मोहन माथुर ने, जैसे ही एस पांडेय का नाम इस जांच आयोग के मुखिया के बतौर घोषित हुआ, मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर बताया कि ‘मैं एसके पांडेय को तब से जानता हूं जब वो जबलपुर में सिविल जज थे। वे आरएसएस के करीबी के बतौर जाने जाते हैं और इसीलिए वे इस घटना की अपक्षपातपूर्ण तरीके से जांच करने योग्य नहीं हैं।’ इस पत्र के लिखे जाने के बाद जो हुआ वो भारतीय लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है- सरकारी संरक्षण में जजों की गुंडागर्दी करने का नायाब उदाहरण है। 90 वर्ष से ज्यादा के उम्र वाले माथुर पर इंदौर में करीब दो सौ संघियों की गुंडा भीड़ ने उनके घर का घेराव किया, उन पर गोबर फेंका और चेहरे पर कालिख पोतने की कोशिश की।
यहां याद रखना जरूरी होगा कि इस घटना के विरोध में वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस समेत किसी दूसरे दल ने कोई विरोध प्रदर्शन तो दूर किसी तरह की शिकायत भी नहीं दर्ज कराई।
जांच की मांग करने वालों पर समाजवादी सरकार में हमला
इस फर्जी मुठभेड़ का विरोध करना उत्तर प्रदेश की तत्कालीन समाजवादी पार्टी सरकार को भी रास नहीं आया था। उसने इस मामले में सीबीआई जांच की मांग कर रहे रिहाई मंच के विरोध प्रदर्शन पर हमला करके न सिर्फ मंच के महासचिव राजीव यादव और मंच के नेता शकील कुरैशी को बुरी तरह पीटा बल्कि प्रदर्शन में शामिल लोगों पर फर्जी मुकदमे भी दर्ज कर दिए। इससे साबित हुआ कि मुसलमानों को आंतकवाद के नाम पर फंसाने और मार डालने की साजिश में अपने को सेक्युलर कहने वाली पार्टियां भी संघ परिवार के एजेंडे पर ही चलती हैं।
रिहाई मंच प्रवक्ता शाहनवाज आलम ने कहा कि तेलंगाना में 5 विचाराधीन कैदियों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या के बाद भोपाल में भी 8 विचाराधीन मुस्लिम कैदियों की हत्या पर तमाम हलकों से सवाल उठने और यहां तक कि मारे गए लोगों द्वारा खुद अदालतों को हत्या कर दिए जाने की साजिश से वाकिफ कराने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट द्वारा संज्ञान लेकर जेलों के अंदर पुलिस और सरकारी तंत्र द्वारा रचे जा रहे आपराधिक षडयंत्रों की जांच न करना सुप्रीम कोर्ट की मंशा को भी कटघरे में खड़ा कर देता है। उन्होंने कहा कि जो सुप्रीम कोर्ट बाघों की मौत और पर्यावरण पर स्वतः संज्ञान ले लेता है उसकी आतंकवाद के आरोपियों के देशव्यापी फर्जी मुठभेड़ों पर चुप्पी न सिर्फ उसकी गरिमा को धूमिल करती है बल्कि उसका रवैया फर्जी मुठभेड़ों को प्रोत्साहित करने वाला है। उन्होंने आरोप लगाया है कि आतंकवाद के फर्जी आरोपों में फंसाए गए मुस्लिम युवकों की रिहाई से सरकारों, सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों की होने वाली बदनामी से बचने के लिए ही उन्हें कभी फरार दिखा कर तो कभी बीमार दिखा कर मारने के बढ़ते चलन पर अल्पसंख्यक आयोग की चुप्पी ने खुद इस आयोग को ही मजाक बना दिया है। उन्होंने मांग की है कि अपनी गरिमा और निष्पक्ष छवि को बचाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट और अल्पसंख्यक आयोग को विभिन्न जेलों में बंद आतंकवाद के आरोपियों की स्थिति का जायजा लेने के लिए आयोग गठित कर जेलों के अंदर दौरे करने चाहिए ताकि विचाराधीन कैदियों की सुरक्षा की गारंटी हो सके।
Written by ancientworld2
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