देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले पहले पत्रकार भी मुस्लिम ही थे

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भारत के लिए शहीद होने वाला पहला पत्रकार मौलवी मोहम्मद बक़ीर देहलवज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। यह दिन प्रेस की आज़ादी और वैचारिक स्वतंत्रता के लिए मनाया जाता है। आज के दिन मीडिया की रक्षा करने और पत्रकारिता करते हुए जान गंवाने वाले पत्रकारों को श्रद्धांजलि भी दी जाती है। कभी अकबर इलाहाबादी ने कहा था :खींचो न कमानो को, न तलवार निकालो,जब तोप हो मुक़ाबिल तो अख़बार निकालो.


और इस शेर ने सारे देश में एक ऐसी लहर पैदा की के मुल्क के हर कोने से अख़बार का प्रकाशन शुरू हो गया, किसी भी तरह के संकट की परवाह किए बिना इंक़लाबीयों ने अख़बार का प्रकाशन एक मिशन के रूप में शुरू किया। अंग्रेजों की कठोर नीतियों और पैसों के वजह कर अख़बार बन्द भी होते रहे लेकिन नए अख़बार का प्रकाशन नहीं रूकब्रिटिश हुकूमत से हिन्दुस्तान को आज़ाद करवाने के इस अज़ीम काम में जहां एक ओर अहिंसावादी आन्दोलनकारियों, क्रान्तिकारियों, कवियों ने अपने जान की परवाह किये बग़ैर अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया.

वहीं क़लम से आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों ने भी आज़ादी की अाग को बुझने नहा दिया पर क्या विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर किसी ने शहीद मौलवी मोहम्मद बाक़ीर देहलवी को याद किया .??आपको पता होना चाहीए कि हिन्दुस्तान की पहली जंग ए आज़ादी में शहादत सिर्फ उन मुजाहिदों की नहीं हुई थी जिन्होंने हथियारों के दम पर यह लड़ाई लड़ी थीं, इस मे एक क़लम से आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाला एक शख़्स भी शहीद हुआ था और उस शख़्स का नाम था मौलवी मोहम्मद बाक़ीर देहलवी. 1857 की क्रांति मे शहीद होने वाले हिन्दुस्तान के एकलौते पत्रकार हैं मौलवी मोहम्मद बाकर देहलवी.

मौलवी मोहम्मद बाक़ीर देहलवी दिल्ली के एक इज़्ज़तदार घराने से तालुक़ रखते थे, उनकी पैदाईश 1790 को देल्ही मे हुई.. वालिद का नाम मौलाना मोहम्मद अकबर अली था.. मज़हबी तालीम मुकम्मल कर मौलवी मोहम्मद बाक़ीर ने आगे की पढ़ाई के लिए 1825 मे दिल्ली कॉलेज मे दाख़िला लिया. पढ़ाई मुकम्मल कर दिल्ली कॉलेज मे ही फ़ारसी के टीचर का ओहदा संभाला. फिर आयकर विभाग मे तहसीलदार का काम किया पर इन सबमे उनका दिल नही लगा .. 1836 मे हुकुमत ने प्रेस ऐक्ट पास किया और बाक़ीर अली ने दिल्ली का सबसे पहला और भारतीय उपमहाद्विप का दुसरा उर्दु अख़बार ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ निकाला.. जिसकी क़ीमत महीने के हिसाब से उस समय 2 रु थी.

7 मार्च 1822 को कलकत्ता से निकलने वाला “जाम ए जहां नुमा” अख़बार भारतीय उपमहाद्विप का पहला उर्दु अख़बार था.. उस समय हिन्दुस्तान मे निकलने वाले सुलतानुल अख़बार, सिराजुल अख़बार और सादिक़ुल अख़बार फ़ारसी ज़ुबान के अख़बार थे. मौलवी मोहम्मद बाक़ीर ने ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ मे ना सिर्फ़ ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर लिखा बल्के दिल्ली और आसपास अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद निती के खिलाफ़ जनमत तैयार करने में इस अखबार का भरपुर उपयोग किया। वे अपने अख़बार में अंग्रेज़ों की विस्तारवादी नीति के ख़िलाफ़ लगातार लिखते रहे।

अवाम के बीच अपने जोशीले लेखन के कारण वे बेहद लोकप्रिय थे। हिन्दू-मुस्लिम एकता के कट्टर समर्थक यह पत्रकार दोनों क़ौमों के बीच फूट डालने की अंग्रेज़ों की कोशिशों को लगातार बेनक़ाब करता रहा। 1857 मे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगुल फुंक दिया और बहादुर शाह ज़फ़र को अपना नेता तब भला मौलवी मोहम्मद बाक़ीर कैसे ख़ामोश रह सकते थे ? बहादुर शाह ज़फ़र को अपना समर्थन देने के लिए 12 जुलाई 1857 को उन्होने अपने अख़बार ‘उर्दू अख़बार दिल्ली’ का नाम बदल कर “अख़बार उज़ ज़फ़र” कर दिया और अंग्रेज़ों के विरोध मे सनीचर की जगह रवीवार को अख़बार शाए करमे लगे।

दिल्ली युनिवर्सटी ले पी एच डी कर कर रही हीना युनुस अंसारी के हनाले से राणा सफ़वी लिखती हैं :- 24 मई 1857 को अख़बार मे बाग़ीयो का हौसला अफ़ज़ाई करते हुए मौलवी बाक़ीर ने लिखा के जिसने भी दिल्ली पर क़ब्ज़े की कोशिश की वोह फ़ना हो गए चाहे वोह सोलोमन हों या फिर सिकंदर .. चंगेज़ ख़ान हों या फिर हलाकु या हों नादिऱ शाह सब फ़ना हो गए और ये फ़िरंगी भी जल्द ही मिट जाएंगे.

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