यहां गौरतलब है कि इस पूरे प्रकरण में लालू के पुत्र और उपमुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव पर अवैध सम्पत्ति अर्जित करने के मामले में सीबीआई जांच अहम कारक रहा जिसपर नीतीश कुमार ने कथित तौर पर आरोपों से घिरे मंत्री से किनारा कर अपनी कथित मिस्टर क्लीन की छवि को बचाने की कोशिश की है। लेकिन बिहार की राजनीति को करीब से समझने वाले लोग बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि यहां भ्रष्टाचार कभी भी राजनीतिक मुद्दा नहीं रहा है और पूरी राजनीति जातियों की अस्मितावादी गोलबंदी के इर्द-गिर्द घूमती रही है, जिसमें अब मुस्लिम विरोधी चेतना राजनीतिक गोलबंदी की नई धुरी है।
दरअसल, जो विपक्ष नितीश को दो साल पहले मिले जनादेश को भाजपा की साम्प्रदायिकता के खिलाफ मिला जनादेश बताकर नितीश पर अवसरवादी होने का आरोप लगा रहा है वह खुद इस जनादेश की गलत व्याख्या प्रस्तुत कर रहा है। क्योंकि महागठबंधन के पक्ष में मिला वोट साम्प्रदायिकता विरोधी होने के बजाए पिछड़ी और दलित जातियों के अपने क्षत्रपों को मिला वोट था जिनका भाजपा से विरोध सिर्फ उसके कथित तौर पर सवर्णवादी होने के कारण था ना कि उसके मुस्लिम विरोधी होने के कारण। इस महागठबंधन में मुसलमान तो सिर्फ भाजपा को हराने के लिए शामिल था। इस तरह, नीतीश के खिलाफ विपक्ष का सबसे मजबूत तर्क ही वैचारिक और तथ्यात्मक तौर पर सिर्फ कमजोर ही नहीं है बल्कि सफेद झूठ है।
दरअसल, विपक्ष का यह तर्क पिछले एक दशक में बहुसंख्यक हिंदू जनमानस में आए इस बदलाव की नासमझी को भी दर्शाता है जिसमें जनता को सिर्फ उस भ्रष्टाचारी नेता और दल से परेशानी है जो हिंदुत्व के राजनीतिक दायरे से बाहर हैं। उसे हिंदुत्ववादी भ्रष्टाचारियों और हत्यारों से कोई दिक्कत नहीं है। उसके समर्थन में वह आक्रामक तरीके से खड़ा भी है। इसे इस नजीर से भी समझा जा सकता है कि पिछली यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार पर रोज मनमोहन सिंह से इस्तीफा मांगने वाली आम भीड़ मोदी सरकार में राममंदिर के निमार्ण पर बहस चलाने में बहुत सहजता से लग गई है। उसे अडानी-अम्बानी के सरकार संरक्षित लूट या किसानों की आत्महत्या पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि ये सब एक मुस्लिम विरोधी हिंदुत्ववादी सरकार के नेतृत्व में हो रहा है। वहीं विपक्ष का न सिर्फ इस समझदारी को स्वीकार करने से बचने का रिर्काड रहा है बल्कि वह खुद इस बदलाव के खेल में इस हद तक नर्म हिंदुत्ववादी पोजीशन लेता रहा है कि उसने ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द को ही बहुसंख्यकवाद की तरफ झुका एक मजाक बना दिया है।
आखिर धर्मनिरपेक्षता के शोरमें इस रिकाॅर्ड को कैसे भुलाया जा सकता है कि भागलपुर दंगे के लगभग सारे दोषी लालू के सजातिय थे जिन्हें लालू ने बखूबी बचाने का काम ही नहीं किया था बल्कि मुख्य आरोपी कामेष्वर यादव को सद्भावना पुरस्कार भी दिया था। वे तो सिर्फ 80 के अंत में कांग्रेस से दूर हो चुके मुसलमानों का वोट लेने के लिए रणनीतिक तौर पर ‘धर्मनिरपेक्ष’ बने थे। वास्तव में बिहार में धर्मनिरपेक्षता एक मजाक, एक प्रहसन थी। जिसे अब ‘गम्भीर’ हिंदुत्ववादी राजनीति पूरी तरह निगल चुकी है।
इस तरह, विपक्ष बयानबाजी चाहे जो करे, लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि नीतीश के इस यूटर्न से कथित सेक्यूलर राजनीति को कोई नुकसान नहीं हुआ है क्योंकि उसका कोई अस्त्वि ही नहीं था, अगर था भी तो वह सिर्फ एक बूथ आधारित समीकरण का नाम था जिसमें मुसलमानों को राजद और जदयू के हिंदुत्ववादी उम्मीदवारों को वोट देना होता था।
इसलिए बिहार के घटनाक्रम में कोई सबक है तो यही कि आप एक विचारधारा वाली सरकार को विचारहीन और भ्रष्ट राजनीतिक टोटकों से चैलेंज नहीं कर सकते।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं , ये उनके निजी विचार हैं )