1857 का साल चाहकर भी हम भुला नहीं सकते। अगर भूलना भी चाहा तो कई नाम हैं, जो हमें उस दौर की याद दिलाते रहेंगे। मगर जैसे-जैसे वक्त गुजरता जा रहा है, यह साल मुझे एक ऐसी खिड़की की तरह नजर आता है, जो खुली है और खामोश भी। अब इससे झांकने की फुर्सत किसी के पास नहीं है।
जमाना तो बदलता ही है। वह अब भी बदल रहा है और आगे भी बदलेगा। इसमें नया क्या है? हर नया दिन बीतकर पुराना हो जाएगा। सिर्फ बातें हैं, जो कुछ याद रखी जाएंगी और बाकी भुला दी जाएंगी।
1857 ने इस मुल्क की जो फिजा बदली, उससे हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया में बहुत कुछ बदल गया था। यह जंगे-आजादी का साल था। इसी साल आजादी की नींव हमारे पूर्वजों ने अपने लहू से सींची थी और आज उसी पर आजाद हिंदुस्तान खड़ा है।
कई नाम हैं जो इसे बुलंदियों की ओर लेकर गए। उन नामों की कोई गिनती नहीं जो आज इसे हर वक्त आगे लेकर जाना चाहते हैं, पर ऐसे नाम भी लाखों में हैं, जो वक्त के साथ गुमनाम हो गए।
आजादी का सवेरा वे देख नहीं सके और आजादी के बाद उनके नामों की ओर देखने की हमने जरूरत नहीं समझी। ऐसे ही नामों में एक नाम है- बेगम सुल्तान जमानी। आप में से ज्यादातर इनके बारे में नहीं जानते होंगे। मैंने इनका नाम सुना है और इनकी जिंदगी की कहानी कहीं-कहीं पढ़ी है। इनका बहुत कम उल्लेख आता है। यहां तक कि गूगल पर सर्च करेंगे तो शायद ही इनके बारे में कोई जानकारी मिले।
यह कहानी पढ़कर आप महसूस करेंगे कि आज कुछ स्वार्थी लोग जिस आजादी की हवा में जहर घोल रहे हैं, उसकी जंग इन सब बातों से बहुत ऊपर थी। शायद हम ऐसे लोगों को माफ कर दें, भुला दें, लेकिन बेगम सुल्तान जमानी जैसे लोग उन्हें कभी माफ नहीं कर पाएंगे।
बहुत कम ही लोग जानते होंगे और आज शायद इस पर कोई यकीन भी न करे कि हमारे देश की आजादी के तार मुंबई के साथ ही पवित्र भूमि मक्का से भी जुड़े हैं।
अभी मैंने जिन बेगम का जिक्र किया है, 1857 की क्रांति में भाग लेने से पहले वे हज के लिए मक्का गई थीं और बाद में वहां से हिंदुस्तान की आजादी का पैगाम लेकर आईं। उनके पति का नाम शहजादे फिरोज शाह था। जब बेगम ने आजादी की लड़ाई में भाग लिया, तब उनकी उम्र सिर्फ 18 साल थी।
बेगम व उनके शौहर हज के लिए मक्का गए थे। वापसी के वक्त जब वे मुंबई पहुंचे तो उन्हें खबर मिली कि देश में इंकलाब का ऐलान हो चुका है। फिरंगियों के खिलाफ एकजुट होकर युद्ध करने का समय आ गया है।
वहां से वे मंदसौर रवाना हुए। उस दौरान फिरोजशाह ने सेना इकट्ठी की और अंग्रेजों के ठिकानों पर धावा बोला। बेगम ने रसद की जिम्मेदारी संभाली। युद्ध में घायल हुए क्रांतिकारियों के घावों पर वे दवा लगाती थीं, ताकि उस मुश्किल घड़ी में वे पूरी हिम्मत के साथ खड़े रहें और डटकर मुकाबला करें। धर्म और मजहब की वहां कोई दीवार नहीं थी।
इस बीच अंग्रेज अपने कपट का पांसा फेंकने में कामयाब हुए और उन्होंने दिल्ली पर दोबारा कब्जा जमा लिया। फिर तो कुछ न पूछिए। ऐसा कत्लेआम हुआ कि इतिहास में उसकी बराबरी का कोई और कत्लेआम न होगा। जिसे मन चाहा, मार दिया और जिसे अधमरा करना था, कर दिया।
अंग्रेजों की सेना को (जिसमें जाहिर है भारतीय भी खूब थे) बेगम और उनके पति की भनक लग गई। वे उस वक्त जंगलों में छुपे हुए थे और छापामार युद्ध की तैयारी कर रहे थे, ताकि इंकलाब की यह मसाल बुझे नहीं। सही समय आने पर फिर रोशन की जाए।
अंग्रेज इस मौकेे को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। उन्होंने जंगल में आग लगवा दी ताकि उनके दुश्मन वहीं पर भस्म हो जाएं। उस समय फिरोज शाह और बेगम सुरक्षित रास्ता देख वहां से निकल गए, पर आजादी की जो चिन्गारी उनके दिलों में थी, वह बुझने नहीं दी।
अब एक नया सफर शुरू हुआ, जो बहुत-बहुत मुश्किल था। चप्पे-चप्पे पर अंग्रेजों के मुखबिर थे, जो अंग्रेज हुकूमत के दुश्मनों पर कड़ी नजर रखते थे। बेगम और उनके पति ऐसे हालात में भी निकलने में कामयाब हुए।
उनके दिलों में इरादा था कि भारत से बाहर एक ऐसी सेना बनाई जाए, जो दिल्ली में बैठी विदेशी हुकूमत पर हमला करे और देश को आजाद कराए। वे अफगानिस्तान गए और आजादी का सपना लिए उसके कई गांव-शहरों में भटकते रहे।
इधर हिंदुस्तान में अंग्रेज और ज्यादा मजबूत होते जा रहे थे। कई अपने थे जिन्होंने दौलत के बदले ईमान बेचा और अंग्रेजों की जी हुजूरी करने में ही खुद की शान समझी। ऐसे लोगों की वजह से अंग्रेजों का शिकंजा भारत पर दिनोंदिन और ज्यादा मजबूती से कसता जा रहा था।
उधर बेगम और उनके पति मन में आजादी की ज्योति जलाए एक देश से दूसरे देश का रास्ता तय कर रहे थे। आखिरकार वे सऊदी अरब के उसी मक्का शहर पहुंचे, जहां उन्होंने इबादत में अपने मुल्क की आजादी मांगी।
क्रांति के करीब बीस साल बाद (1877 या इसके आसपास) मक्का में ही शहजादे फिरोजशाह की मृत्यु हो गई। एक क्रांतिकारी आजाद हिंदुस्तान का सपना देखते-देखते ही चला गया। मगर बेगम का मकसद अब भी नहीं बदला था। पति का साथ छुटा तो वे खुद आगे बढ़ीं और अंग्रेज हुकूमत का सामना करने भारत लौट आईं। उसी मुंबई शहर में, जहां बीस साल पहले वे लौटी थीं।
ऐसे हालात में बेगम ने गुमनामी की जिंदगी गुजारी और गुमनामी की मौत कबूल की। मुंबई में ही उनका देहांत हो गया। उनका सपना उस वक्त अधूरा ही रहा क्योंकि उसे पूरा करने करने के लिए कुछ और कुर्बानियों की जरूरत थी, भारत को और इंतजार करना पड़ा।
मुंबई का समंदर हो या मक्का की मिट्टी, इनमें एक गहरा और खूबसूरत रिश्ता है। इसे न तो दुनिया की उन किताबों से समझा जा सकता है जो रोज नफरत की स्याही से लिखी जा रही हैं और न ही यह रिश्ता उन चश्मों से दिखाई देता है, जिन पर आज जमाने भर की धूल जमी है
यह तो बहुत नजदीक का रिश्ता है, जिसे समझने में ही कुछ लोगों को कई जमाने लग जाएंगे। यह रिश्ता हर किसी के नसीब में नहीं होता। वो पत्थर ज्यादा खुशनसीब होता है, जिसे दीवारों में नहीं, नींव में जगह मिलती है। इमारत की दीवारें तो रंग देखकर अपना मजहब बना लेती हैं और यह भूल जाती हैं कि नींव के ये पत्थर न होते, तो न ये दीवारें होतीं और न इनके ये मजहबी रंग।
याद रखिए, किसी के नसीब में गुलामी का अंधेरा था, इसीलिए आज हमारे नसीब में आजादी का सवेरा है। कभी अंधेरे में उजाले का इंतजार करते-करते बेगम सुल्तान जमानी और फिरोज शाह जैसे लाखों लोग हमारी आजादी पर कुर्बान हो गए। अब वर्षों बाद जब यह रोशनी मिली है तो इसकी हिफाजत करना सीखिए।