मैं फिल्मी अभिनेताओं का बहुत ज्यादा प्रशंसक नहीं हूं। यहां तक कि मेरा कोई बहुत पसंदीदा अभिनेता या अभिनेत्री भी नहीं रही। स्कूली दिनों में जब मेरे सहपाठी किताबों और नोटबुक पर फिल्मी तारिकाओं की तस्वीरों वाले कवर चढ़ाया करते थे, तब मैं अखबारों से राशिफल, पंचांग, तीये की बैठक, बाजार भाव वाले पृष्ठ से कवर चढ़ाता था।
फिल्मी अभिनेताओंं को लेकर लोगों में जो पागलपन रहता है, वो मुझमें कभी नहीं रहा। हालांकि आमिर खान को मैं सबसे अच्छा अभिनेता मानता हूं। खासतौर पर ‘लगान’ फिल्म की वजह से मैं उन्हें फिल्म जगत का महानायक स्वीकार करता हूं अथवा यूं कहूं कि आमिर के ‘ए’ से ही बॉलीवुड की ए बी सी शुरू होती है।
आमिर खान की दूसरी जिस खूबी का मैं कायल हूं, वो है संख्या से ज्यादा गुणवत्ता को महत्व देना। अक्सर वो साल में एक फिल्म बनाते हैं और नतीजों से साबित कर देते हैं कि आमिर खान का मतलब क्या होता है। सौ कचरा फिल्में बनाने से अच्छा है एक बेहतरीन फिल्म बनाना।
इस सिद्धांत को थोड़ा—थोड़ा मैंने भी अपनी जिंदगी में उतारने की कोशिश की। जब मैं एक हिंदी वेबसाइट में कंटेंट राइटर था तो दिन में सिर्फ पांच या सात लेख लिखता, लेकिन उनमें पूरी जान लगा देता। जब वे वेबसाइट पर प्रकाशित होने के बाद सोशल मीडिया पर जाते तो जबर्दस्त शेयर किए जाते। इस नियम का मैंने कई जगह पालन किया और नतीजे बेमिसाल रहे।
लेकिन मैंने असल जिंदगी में इस सिद्धांत पर अमल करते बहुत कम लोगों को देखा है। जिन अखबारों के दफ्तर में मैंने काम किया, अक्सर वहां कई संपादक बरसों पुरानी परिपाटी को ढोते मिले। 21वीं सदी में भी उनकी यही मान्यता है कि अखबारों और वेबसाइट्स में ढेर सारी खबरें ठूंस दी जाएं, चाहे वे कचरा ही क्यों न हों। यह प्रवृत्ति हमारे पूरे देश में व्याप्त है जिसका दंड हम आज तक भोग रहे हैं और मुझे डर है कि भविष्य में भी इसका भयंकर परिणाम भुगतना होगा।
हमारे प्राचीन शास्त्रों में क्वांटिटी (तादाद) के बजाय क्वालिटी (गुणवत्ता) का महत्व बताते हुए कहा गया है कि सौ मूर्ख बेटों से एक गुणवान बेटा ज्यादा अच्छा है। तारे करोड़ों होकर भी रात्रि का अंधेरा दूर नहीं कर सकते, जबकि चंद्रमा अकेला उजाला कर देता है। इस्लाम के इतिहास में भी ऐसे कई उदाहरण हैं। याद कीजिए, जब बद्र का युद्ध हुआ तो क्या हुआ! हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) सिर्फ 313 योद्धाओं की एक फौज लेकर आए जिसने भारी हथियारों वाली, ऊंटों—घोड़ों पर सवार होकर आई तिगुनी फौज पर फतह हासिल की। लेकिन हमने उस घटना से कोई खास शिक्षा नहीं ली।
आज इन सब बातों का जिक्र मैं एक कड़वे अनुभव की वजह से कर रहा हूं। दरअसल दोपहर को मैं सामान्य ज्ञान की एक किताब पढ़ रहा था। उसमें विश्व के उन महान वैज्ञानिकों और उनके आविष्कारों की कहानियां थीं जिन्होंने हमारी मौजूदा जिंदगी बदल दी। मैं उनके नाम पढ़ता रहा। मुझे उनमें से अधिकतर नाम यूरोप और अमरीका से मिले। ज्यादातर ईसाई और यहूदी।
उसमें भारत का योगदान लगभग शून्य। हिंदुओं और मुसलमानोंं का योगदान लगभग शून्य। किताब के दूसरे पन्ने पर दुनिया की बेहतरीन यूनिवर्सिटीज का जिक्र था। वहां भारत का योगदान लगभग शून्य। ओलंपिक खेलों में अमरीका का दबदबा देखा, पर चीनी खिलाड़ियों का दमखम देखकर लगता है कि वो दिन दूर नहीं जब दुनिया मजबूर होकर चीन को सलाम करेगी। आजादी के बाद ओलंपिक खेलों में भारत का योगदान लगभग शून्य। चीन के सामने हमारे पदकों की संख्या देखकर तो शर्म आती है।
हम इस बात पर फख्र करते हैं कि सरकारी स्कूलों, रेलगाड़ियों, सरकारी बैंकों, थानों, सार्वजनिक शौचालयों और डाकघरों का विशाल नेटवर्क हमारे पास है, लेकिन जब इनका मूल्यांकन करते हैं तो इन्हें दुनिया की सबसे घटिया संस्था का प्रमाण पत्र देने का मन करता है।
वास्तव में हमारा मुल्क एक अजीब बीमारी से गुजर रहा है जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। हम संख्यावाद में बुरी तरह उलझे हुए हैं और क्वालिटी के नाम पर शून्य हैं। मुझे ताज्जुब होता है कि सवा सौ करोड़ के मुल्क को बीस करोड़ के पाकिस्तान ने परेशान कर रखा है। हम इन्सान हैं या भेड़—बकरियों का झुंड? आखिर हम लोग सहन कैसे कर रहे हैं? अब तक तो इस मुल्क में क्रांति हो जानी चाहिए थी। गली—मोहल्लों और सड़कों पर भीड़ ही भीड़ दिखाई देती है लेकिन ये लोग मुल्क चलाना नहीं जानते, दुनिया कहां से चलाएंगे!
सिर्फ तीस करोड़ का अमरीका पूरी दुनिया चला रहा है, वहीं सवा सौ करोड़ के भारत को पता ही नहीं कि यह मुल्क चल कैसे रहा है! पूरे हिंदुस्तान में एक बंदा ऐसा नहीं जो हमें गूगल से बेहतर या ऐसा ही देसी सर्च इंजन दे सके। चीन को देखिए, उसने दुनिया से बहुत कुछ सीखा लेकिन आज उसके पास जो है, वो अपना है।
जब 21वीं सदी में मेरे हिंदुस्तानी भाई—बहनों का ये हाल है तो सोचिए, हज़ार साल पहले क्या दुर्गति रही होगी? हमारी आदत है संख्याओं का ढेर देखने की, खुद को सबसे श्रेष्ठ मानकर चैन की नींद सोते रहने की। सोते रहिए और संख्यावाद में उलझे रहिए। इस बीच ख़ुदा ने दुनिया की बादशाहत ब्रिटेन से लेकर अमरीका के नाम लिख दी। वह हमारे नाम भी हो सकती थी पर अब मुझे महसूस होता है कि अगली बादशाहत चीन के नाम होगी। आप सब गवाह रहना, मैं दोबारा लिख रहा हूं — दुनिया की बादशाहत चीन के नाम होने वाली है।
आप परमाणु बम पर मुग्ध रहें और कहते रहें कि हम बम फोड़ देंगे। आप इसी ख्वाब में खोए रहें कि हमें क्या खतरा है, हमारे पास तो लाखों की फौज है! याद कीजिए, अकबर से लेकर औरंगजेब और बहादुर शाह जफर के जमाने तक भारतीय सैनिकों की तादाद लाखों में थी। वो भी बड़े दिलेर और बहुत बहादुर थे।
फिर भी मुट्ठीभर अंग्रेज यहां राज कर गए। उन्होंने हमारी फूट का फायदा उठाया और कारोबार पर कब्जा किया। आज चीन एकजुट है और भारत वैचारिक दृष्टि से बिखरा हुआ। चीन ने कारोबार में ऐसा पांव जमाया है कि पूरी दुनिया में उसका डंका बज रहा है।
ऐ भारत की आने वाली पीढ़ी! मैं गवाह हूं, तुम्हारे दादा और पिता वही भूल दोहराते रहे, जो उनके पुरखे दोहराते थे। कुदरत उन्हें मौके देती रही, मगर वे गंवाते रहे। उनके पास बहुत बड़ी जमीन थी, मजबूत हाथ थे, नदियां, जंगल, रेगिस्तान, पहाड़ — सबकुछ था। बस इच्छाशक्ति नहीं थी, इरादा नहीं था। घटिया दर्जे की बहुत सारी संस्थाएं और लक्ष्य बना लेते। 21वीं सदी में भी उनका प्रधानमंत्री उनसे बार—बार निवेदन करता था कि खुले में शौच के लिए न जाओ। वे हर आविष्कार के लिए दूसरों पर आश्रित रहते थे। खुद तो वे अपने मोहल्ले की नाली भी साफ नहीं कर सकते थे। वे जिंदगी भर किसी ऐसे महानायक का इंतजार करते रहे जो आकर उनकी सब तकलीफें दूर कर दे, मगर यह नहीं जानते थे कि वह महानायक उन्हीं में छुपा था।
— राजीव शर्मा (कोलसिया) —