म्यांमार (बर्मा) में 1995 से मुसलमानों के खिलाफ बाकायदा योजनाबद्ध हमले बढ़े हैं और रह रह कर उन्हें जमीन और जिंदगी से बेदखल किया जाता रहा है (कुछ जानकार कहते हैं कि अफगानिस्तान में बामियान की ऐतिहासिक बुद्ध प्रतिमाओं पर तालिबानी हमलों ने कुछ बौद्ध संप्रदायों को भड़काया है और उसका बदला वे इस तरह भी ले रहे हो सकते हैं. जैसा कि म्यांमार में दिखता है !
ये बहुसंख्यकवाद वर्चस्व और ताकत का अतिवाद है. जहां जहां जिसके पास हर किस्म की ताकत और हर तरह के संसाधनों की लूट का मंसूबा है वो अपने समाज के दबे कुचलों पर दमन ढा रहा है. सभ्यताओं के टकराव का जो अमेरिकी सत्ता और पूंजी का दर्शन है, उसमें भी इस्लाम के साथ अलगाव को अवश्यंभावी माना गया है !
सिर्फ म्यांमार ही नहीं, बल्कि श्रीलंका और थाइलैंड में भी बौद्ध लोग अपने धर्म के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ हिंसा कर रहे हैं. इसकी वजह से दुनिया के सबसे शांत धर्मों में शामिल बौद्ध धर्म को लोग अब अलग नजर से देखने लगे हैं !
बर्मा में मार्च 2015 में शुरू हुई प्रारंभिक हिंसा में 42 लोग मारे गए थे, खून खराबा माइकतिला शहर में शुरू हुआ. टाइम पत्रिका की स्टोरी में लिखा गया है कि बौद्ध नेता आशिन विरातु के नफरत भरे भाषणों की वजह से मुसलमानों के खिलाफ हिंसा शुरू हुई. विरातु को बर्मा का बिन लादेन कहा जाता है. वह सोशल मीडिया पर 969 मूवमेंट के बारे में अपनी बातें कहता रहता है. 969 एक मुस्लिम विरोधी और इस्लामॉफ़ोबिक मूवमेंट है, और इसको चलाए जाने वाले बौद्ध आतंकी गुट भी हैं, जिसे कुछ मीडिया संगठन म्यांमार की नाजी संस्था कहते हैं !
969 मूवमेंट और गुट के बारे में यहाँ पढ़ सकते हैं :-
उनका मिशन है कि बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग अपनी दुकानों, घरों और पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर 969 का स्टीकर लगाएं. कई जगहों पर मुसलमानों की जलाई गई इमारतों पर भी इन नंबरों को स्प्रे कर दिया गया है. विरातु का कहना है कि मुसलमानों के व्पायार का बहिष्कार किया जाना चाहिए और अंतरधार्मिक विवाहों को भी बंद कर दिया जाना चाहिए !
म्यांमार में करीब चार फीसदी आबादी मुसलमानों की है. म्यांमार का कहना है कि ये लोग बांग्लादेश से वहां आए हैं, जबकि इन रोंहिग्या मुसलमानों का दावा है कि वे म्यांमार के ही हैं !
और इस नाजुक घड़ी में दलाई लामा जैसे धर्म गुरुओं की चुप्पी बड़े सवाल खड़े करती है, लोकप्रिय धार्मिक गुरु से ये अपेक्षा तो की ही जाती है कि खामोशी की राजनीति के साथ साथ वो दबाव की राजनीति भी बनाए. शायद उनका दबाव काम आए और बेगुनाहों का कत्लेआम रुक सके !
युद्धों, हत्याओं और अत्याचारों की भर्त्सना करने से ही शांति नहीं आती और पाप नहीं रुक जाते हैं. शांति की कामना ज़रूर की जानी चाहिए लेकिन पीड़ितों को इंसाफ दिलाने की लड़ाई में भी आगे रहना चाहिए. यही धर्म है. वरना तो इस दुनिया में मनुष्य नहीं कातिल ही रह जाएंगे !!