रोहिंग्या मामला – तथ्य और मामले का समाधान, हिंसा के पीछे छुपी नाकामियाबी

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8 वी सदी के आसपास रोहिंग्या दक्षिण पूर्व एशिया से होते हुए अराकान नाम के साम्राज्य में पलायन कर के आये थे जिस राज्य को आज राखाइन कहा जाता है. बाद में इनका संपर्क अरब से आये व्यापारियों से हुआ. इनसे प्रभावित होकर  14 वी सदी के अंत तक  इनमे से बहुसंख्य्नको ने इस्लाम कबूल कर लिया.

ब्रिटिश राज
सन 1784 में बर्मा के एक राजा ने  अराकान को अपने कबजे में ले लिया. जिसके बाद हज़ारो रोहिंग्या बंगाल की तरफ जाने पर मजबूर होगये. बाद में एक ब्रिटिश राजनयिक की मध्यस्ती के बाद बंगलादेश में इन्हे “कॉक्स बाज़ार” नाम की बस्ती में बसाया गया.  उस जगह आज भी बहोत सारे रोहिंग्या रहते हैं. ये नाम उस राजनयिक के नाम “हीराम कॉक्स” के नाम पर रखा गया.


 बाद में ब्रिटिशो ने बर्मा पर हमला कर उसको फिर से अपने कबजे में ले लिया. सन 1824 से लेकर सन 1942 तक बर्मा पर ब्रिटिश साम्राज्य था. कुछ इत्तिहासकार बताते हैं के ब्रिटिशर्स ने सन 1935 के आसपास बंगाल-म्यानमार के सरहदों पर रहने वाले रोहिंग्याओ को म्यानमार के आरख़ाइन इलाके में ले गए.  जहां की ज़मीं बड़ी उपजाऊ थी. इनसे ब्रिटिशर्स वहाँ खेती मजदूरी का काम लेते थे.  बिर्टिशेर्स ने हमेशा बर्मा में वहां के स्थानिक लोगों से ज़्यादा दूसरे लोगों को अहम तरजीह दी. जिस्का असर ये हुआ के सन 1942 में जापान ने बर्मा पर कब्ज़ा कर लेने के बाद, बर्मा के उग्र राष्ट्रवादीयो ने सत्ता पलट का फायदा उठाते हुए रोहिंग्या मुसलमानों को निशाना बनाया. उनका मानना था के रोहिंग्या मुसलमानों को ब्रिटिश राज में उनसे ज्यादा अहमियत दी गइ थी, जिससे मुसलमानों को बहोत फायदा हुआ.

रोहिंग्या विद्रोह
सन 1945 में ब्रिटिशर्स ने बर्मा और रोहिंग्या लडाको की मदद से जापान को बर्मा से उखाड़ फेंका. बर्मा के लडाको का नेतृत्व औंग सान कर रहें थे. लेकिन यहाँ फिर से तनाव जनक स्थिति की शुरुआत होगई. रोहिंग्या अराकान राज्य के लिए स्वायत्ता चाहते थे. जो के उन्हें नहीं दी गई. औंग सान को सन 1946 में देश का प्रधानमंत्री बनाया गया. लेकिन दूसरी रोहिंग्या अराकान को स्वायत्ता न दिए जाने से खुश नहीं थे. इसलिए इन्होने ने पश्चिमी पाकिस्तान (बंगलादेश) में शामिल होने के लिए पहल की और मोहम्मद अली जिनाह से मिलकर अराकान के कुछ मुस्लिम बहुल  इलाको को पाकिस्तान में शामिल करने की अपील की. जिन्नाह ने ऐसा करने से ये कहते हुए इंकार कर दिया के ये बर्मा का अंतर्गत मामला है.


बाद में इन लोगों ने बर्मा की नई हुकूमत से अराकान के कुछ इलाको को सहूलियत देने की गुज़ारिश की. बर्मा की नई हुकूमत ने इसे भी नज़र अंदाज़ कर दिया और  सन 1948  के आसपास इसका बदला लेते हुए सरकार ने कई रोहिंग्या जो के सरकारी नौकर थे. उन्हें नौकरी से निकाल दिया. सन 1950 में कुछ रोहिंग्याओं ने सरकार का मुकाबला करने हत्यार उठाये और “मुजाहिद”  नाम का एक संघटन बनाया. संघटन के लड़ाके बर्मा की आर्मी पर  हमला करते थ. शुरुआत में इन्हे कामियाबी मिली लेकिन जब पूरी ताकत से बर्मा ने इनपर जवाबी  हमले किये तो इनमे से अधिकतर लड़ाकों ने आत्मसमर्पण कर दिया. सन 1960 के अंत तक ये विद्रोह को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया.

आर्मी रूल
लेकिन सन 1960 के बाद लोकतांत्रिक सरकार की कमज़ोरी का फायदा उठाते हुए  बर्मा की आर्मी ने लोकतांत्रिक सरकार को बरख्वास्त करते हुए बर्मा पर आर्मी  रुल का एलान कर दिया. सन 1977 में एक ऑपरेशन के तहत बर्मा में “विदेशियों की आबादी” को कम करने के नाम पर बर्मा की आर्मी ने रोहिंग्याओ पर ज़ुल्म व् ज़्यादती की. तक़रीबन 2,00,000 रोहिंग्या बंगलादेश को पलायन करने और वहां शरण लेने पर मजबूर होगये.
बंगलादेश ने ये मामला संयुक्त राष्ट्र में उठाया. उसके बाद हुए समझौते में ज़्यादातर रोहिंग्या वापस बर्मा चले गए.  इसी तरह हर एक न्य आर्मी जनरल बर्मा की सत्ता पर आता गया और  रोहिंग्याओ पर ज़ुल्म की नई दास्ताँ लिखता गया. हद ये होगई के सन 1982 में बर्मा  की तानाशाह आर्मी हुकूमत ने देश की नागरिकता के लिए नया कानून बनाया. उसके अनुसार रोहिंग्याओ को नागरिक ही नही माना गया. बर्मा रोहिंग्याओ को देश का नागरिक ही नहीं मानता इस लिए उन्हें म्यानमार का संविधान उनके कोई अधिकार या सुरक्षा को सुनिश्चित नही करता. सन 1989 में बर्मा की आर्मी ने  अपने देश का नाम बदल कर म्यानमार रखा. लेकिन लोकतंत्र से आर्मी  रूल  के आने के बाद भी और नाम बदलने के बाद भी रोहिंग्याओं पर ज़ुल्म व ज़्यादती में कोई गिरवट नहीं आयी.

नाकामी को छुपाने
सन 1991 में फिर से आर्मी ने रोहिंग्या महिलाओ के साथ बलात्कार, जबरन मजदूरी कराना और न मानने पर उनके खिलाफ हिंसा की गई. इस के बाद फिर से एक बार  पलायन का सिलसिला शुरू हुआ. सन 1992 में फिर से एक अंतराष्ट्रीय समझौते के बाद म्यानमार को मजबूरन रोहिंग्याओ को वापस अपने देश में लेना पड़ा.
लेकिन बौद्ध बहुसंख्यांक वाले इस देश में आर्मी की तरफ से की जाने वाली हिंसा के पीछे एक मकसद ये भी है.  रोहिंग्याओ पर ज़ुल्म कर के आर्मी अपने देश की सरकार की नाकामी को छुपाने में कामियाब होजाती है. आज म्यानमार की स्तिथि दक्षिण पूर्व एशिया के सब से गरीब देश की है. 1 भारतीय रुपिय को देने पर 21 म्यांमार के “क्यात” नाम की करंसी मिल जाती है. जब के 1 रूपया खर्च करने पर पाकिस्तान, बंगलादेश और नेपाल में भी 1.60 रुपिय मिलते हैं. अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए म्यानमार के शासक कर्ताओ ने पूरी तरह यही प्रोपेगंडा पुरे देश में फैलाया के रोहिंग्या ही देश के लिए बड़ी समस्या हैं. जब के  रोहिंग्या वहाँ पर एक प्रतिशत मात्र भी नहीं है.


इसी प्रोपेगंडा को वहां के अतिवादी बौद्ध धर्म गुरु भी देश की जनता के सामने दोहराते गए. वहां के एक बौद्ध धर्म गुरु जिन पर इलज़ाम है के उन्होंने रोहिंग्या खिलाफ हिंसा का माहौल बनाने में अहम रोल अदा किया है.  उनका बयान रिकॉर्ड पर मौजूद है जिस में वो कहते हैं के बौद्ध समाज (80-98% ) के लोगों ने रोहिंग्या से कुछ भी नहीं खरीदना चाहिए.  अगर वो ऐसा करते हैं तो उनके पैसो से रोहिंग्या मुसलमान पैसा बनाएंगे.  बौद्ध लड़कियों से शादियां करेंगे. इनकी आबादी बढ़ेगी तो ये देश के लिए खतरनाक साबित होगा.

कुक लोगो द्वारा सन 2012 में एक अफवाह ये फैला दी के एक रोहिंग्या ने किसी बौद्ध लड़की का बलात्कार कर हत्या कर दी है. इस के बाद हिंसा का दिल दहलाने वाला दौर शुरू हुआ. दोनों तरफ से हुए हमलो और आगज़नी की घटनाओ में कुल 1,40,000 से ज़्यादा रोहिंग्या मुसलमानो और सैंकड़ो बुद्धिस्ट समाज के लोगों को भी शरणार्थी कैंपस में जाना पड़ा. रोहिंग्या मुसलमानो पर सिर्फ वहां के अतिवादी बौद्ध समाज के लोगों ने ही हमला नहीं किया बल्कि वहां की आर्मी भी पूरी तरह इन  हमलो में शामिल थी.

शरणार्थी कैंप
शरणार्थी कैंप में रह रहे लोगों को न ही साफ़ पानी, खाना और न ही दवाओं की कोई सहूलत मुहैया है. बल्कि इन कैम्प्स में रह रहे रोहिंग्या को किसी भी क्लिनिक अस्पताल में इलाज करने की भी इजाज़त नहीं है. उन्हें तड़प तड़प कर उन कैम्प्स में ही मरना पड़ता है. कैम्प्स को चारो तरफ से वहां की आर्मी ने घेर रखा है.  शर्णार्थियो के आने जाने, नौकरी करने पर प्रतिबंध लगाया हुआ है. जो मानवाधिकार और समाजिक संघटन म्यांमार में रोहिंग्या की मदद करना चाहते हैं. वहां की सरकार उन्हें काम करने से रोकती है. उनके आवाजाही प्रतिंबधित की जाती है. उन पर दबाआव बनाया जाता है.

थाईलैंड
जब अपने ही देश में रोहिंग्या शरणार्थी बनकर रह रहे थे. तो कुछ मानव तस्करी करने वाली टोली ने इन्हें वरग़ला कर नौकरी दिलवाने और बेहतर जिंदगी का सपना दिखलाकर  थाईलैंड लेकर गए. जहां इन्हे धोका देकर जंगल के इलाको में कैद कर दिया गया. इनसे पैसे मांगे गए न देने पर इनको मार दिया गया.  जब कई दिनों तक पैसा न मिलता देख तस्कर वहां से भाग गए. जिस के बाद कई दिनों से भूके पियासे रोहिंग्या समूह के कई लोगों ने वही जंगल में अपना दम तोड़ दिया और कुछ बच कर दूसरी जगह चले गये. इसका पता तब चला जब थाईलैंड की पोलिस को वहां जंगल में सामूहिक कब्रे मिली. जांच हुई तो अंतरराष्टीय टोली का इसमें हाथ होने का पता चला.  ये इतनी प्रभावी टोली थी के मानवतस्करी की इन्क्वारी कर रहें जांच अधिकारी को थाईलैंड छोड़ कर भागना पड़ा. इस टोली को थाईलैंड से लेकर म्यांमार तक के बड़े बड़े अधिकारियो और सरकार में मौजूद प्रभावी व्यक्तियों का समर्थन हासिल था.

संयुक्त राष्ट्र
संयुक्त राष्ट्र भी इस मामले में पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है. संयुक्त राष्ट्र के अधिकारी जो वहां म्यांमार में मौजूद है. वो कहते हैं के वो जब भी रोहिंग्या मुसलमानो की मदद करना चाहते हैं.  वहां के अधिकारी और आर्मी उन्हें ऐसा करने से रोकती है. जब उन्होंने ने संयुक्त राष्ट्र के स्थानिक उच्च अधिकारियों को इस बारे में बताया उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया. इस मामले में संयुक्त राष्ट्र ने भी म्यांमार की हुकूमत को शरणार्थियों और पीड़ितों से कही ज़्यादा तरजीह दी है. इस तरह का बर्ताव संयुक्त राष्ट्र की अपनी नीतियों और उसूलो के सख्त खिलाफ है .

औंग सान सु कोई
नोबल पुरस्कार विजेता औंग सान सु कोई ने सन 2015 में चुनाव जीतने के बाद मयान्मार की प्रधानमंत्री बनी.  बीबीसी ने इनके विदेशी दौरे के दौरान इनका इंटरव्यू लिया. इंटरव्यू में जब भी बीबीसी की पत्रकार म्यानमार की प्रधानमंत्री से सवाल पूछ रही थी के वहां के मुसलमानो को मारा जा रहा है.  उनपर अत्याचार होरहे हैं. तो उनके हर जवाब में प्रधानमंत्री ये कहती थी के वहां के बौद्ध भी इन सब पीड़ा को झेल रहें है. जब उनसे ये पूछा गया के ये बौद्ध समाज का प्रतिशत पीडितो में बहोत कम है. तो वो जस्टिफाई करने लगी और कहा के रोहिंग्या के बारे में बौद्ध समाज में डर है इस लिए वो उनपर हमले कर रहें हैं. लेकिन इन हमलो को रोकने के लिए डर और नफरत के  माहौल को खत्म करने प्रधानमंत्री की तरफ से अब तक कुछ नहीं किया गया है. उनकी ख़ामोशी यही बताती है के आर्मी जो कुछ भी रोहिंग्या के साथ कर रही है, इससे वो सहमत हैं.
मयान्मार का कोई विपक्षी दल रोहिंग्या के बारे में कुछ बोलना नहीं चाहता है. मसला इस लिए बड़ा संगीन है के रोहिंग्या मुसलमानो को वोट करने का कोई अधिकार नहीं है.

हरकाह अल यकीन
 सन 2016 के अक्टूबर में म्यानमार के एक स्थानिक मिलिटंट ग्रुप “हरकाह अल यकीन” ने सरहद की एक आर्मी चौकी पर हमला कर दिया. म्यानमार की आर्मी  के 9 जवानो को अपनी जान गंवानी पड़ी.  आर्मी ने इसका जवाब दिया और इसकी चपेट में मासूम रोहिंग्या भी आये.  लगभग 25,000 रोहिंग्या को बंगलादेश पलायन करना पड़ा. कई दिनों तक आर्मी की तरफ से रोहिंग्या पर हमले जारी रहै और साथ ही वहां का बहुसंख्यांक समाज भी आर्मी की इस कार्रवाई को गलत नहीं मानता. सोशल मीडिया में जो फोटो और वीडियो आते हैं. रोहिंग्या पर ज़ुल्म की इन्तहा ब्यान करते हैं. एक कमज़ोर दिल इंसान उन सब को देख नहीं सकता.

बंगलादेश
इस साल अगस्त के महीने में रखाइन राज्य के  15 शहरों में संयुक्त राष्ट्र और सामाजिक संघटनो जो रोहिंग्या मुसलमानो की मदद कर रहें हैं उनके खिलाफ प्रदर्शन किया गया. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व प्रमुख कोफ़ी अन्नान की अध्यक्षता में एक अंतराष्ट्रीय कमीशन बनाया गया था. जिसकी रिपोर्ट कुछ दिनों पहले आई जिसमे म्यांमार हुकूमत को कहा गया है के अगर रोहिंग्या मुसलमानो का हल नहीं निकाला गया तो हालात संगीन हो सकते हैं. रिपोर्ट के सर्वाजनिक होने के बाद भड़की हिंसा और आर्मी की कार्रवाई में सिर्फ दो हफ्तों के अंदर 400 से ज्यादा रोहिंग्या मारे जा चुके हैं.  रखाइन राज्य जो के बंगलादेश की सरहद को लगा हुआ है. जो रोहिंग्या अपनी जान बचाने के लिए बंगलादेश सरहद की और जारहे थे. उन्हें बंगलादेश ने भी अपनी शरण में लेने से इंकार कर दिया.  पिछले एक हफ्ते में 27,000 शरणार्थियों ने बंगलादेश में शरण ली है. लेकिन वहां की हुकूमत ने भी अब अपनी बॉर्डर को बंद कर दिया है और सरहद पर कड़ा सिक्योरिटी पहरा लगा दिया है.

चीन
चीन म्यांमार को पूरी तरह मदद कर रहा है. जिस की वजह से उसपर कूटनैतिक दबाव बनाने और सिक्योरिटी कौंसिल में उसके खिलाफ प्रतिबंध लगाए जाने जैसी कोई कारवाही नहीं की जा रही है. चीन ने 2006 में अमेरिका द्वारा संयुक्त राष्ट्र में मयान्मार के खिलाफ प्रस्ताव का विरोध कर उसे वीटो कर दिया था. हर वर्ष चीन लगभग मयान्मार में होने वाले कुल निवेश का 50 प्रतिशत निवेश खुद करता है. चीन की निय्यत ये है के वो मयान्मार सरकार से नजदीकी बनाकर अपने महत्वाकांक्षी प्रयोजनाओ को पूरा करना चाहता है. चीन  साउथ ईस्ट एशिया में अपना दबदबा बनाये रखना चाहता है.


भारत
 भारत  सरकार भी रोहिंग्या को म्यानमार वापस भिजवाना चाहती है. जिस के खिलाफ दो रोहिंग्या शरणार्थियों ने वकील प्रशांत भूषण की मदद से सुप्रीम कोर्ट में अपील की है. जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है के वो किस लिए रोहिंग्या को वापस भिजवाना चाहती है ?  इसके जवाब के लिए सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने 11 सितम्बर तक का वक्त दिया है. सरकार का मानना है के इन शरणार्थियों की वजह से देश की सुरक्षा को धोका है.  साथ ही इनके देश में रहने से देश के संसाधनो पर अतिरिकत भार पड़ेगा. याद रहे के भारत में सिर्फ रोहिंग्या और बंगलादेशी नहीं रहते हैं बल्के संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के हिसाब से चीन के 1,10,000 और श्रीलंका के 64,208 शरणार्थी भी भारत में रहते हैं. जिन श्रीलंकन तमिल शरणार्थियों को भारत ने शरण दे रखी है. इन में “एलटीटी” जैसे आतंकी संघटन के समर्थक भी हैं. जिन पर एक पूर्व प्रधानमंत्री को मारने के भी आरोप सिद्ध हुए हैं.
लेकिन भारत ने अंतराष्ट्रीय नियमो और संयुक्त राष्ट्र के अहम सदस्य होने के नाते मानवाधिकारों के प्रति अपनी कटिबद्धता का पूरा फर्ज निभाते हुए इन सब को शरण दे रखी है.

भारत सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए कुछ ख़ास नही करती है. जब के अफ़ग़ानिस्तान और अन्य देशों से आये शरणार्थियों के लिए स्कॉलरशिप्स और अन्य सुविधाएं दी जाती है. म्यानमार के ये शरणार्थी रोहिंग्या दिल्ली, जम्मू और हैद्राबाद में रहते हैं जो तकरीबन 10 हज़ार के आसपास हैं. ये यहां साइकल रिक्शा चलाने जैसे छोटे छोटे काम कर अपनी जिंदगी बसर करते हैं. कोई भी देश जब तक सफल नहीं बन सकता है जब तक उसके पडोसी भी अमन और सौहार्द के साथ रहकर तरक्की नहीं करते. अमेरिका के दो पडोसी हैं एक कनाडा और दूसरा मेक्सिको दोनों भी समृद्ध और संपन्न देश हैं. लेकिन भारत को अगर आगे बढ़ना है तो उसे अपने पडोसी देशो  में अमन और सौहार्द के लिए कुछ करना होगा.

दलाई लामा
ऐसा नहीं है के दलाई लामा ने रोहिंग्या के बारे में कुछ नहीं कहा है. उन्होंने कई बार इस मामले में रोहिंग्याओ का पक्ष लिया है. इनके खिलाफ हुई हिंसा की निंदा की है. अगर चीन अपने हार्ड पावर का इस्तेमाल कर म्यानमार को मदद कर रहा है तो हमें भी चाहिए के हम भी दलाई लामा जैसे सॉफ्ट पावर का इस्तेमाल कर दलित और रोहिंग्या मुसलमानो में मौजूद नफरत को कम करने की पहल करें. हर साल हज़ारो म्यानमार के बौद्ध श्रद्धालु भारत में बौद्धगया के दर्शन के लिए आते हैं.
भारत के लिए ये ज़रूरी है के वो म्यानमार मामले में हस्तक्षेप करे और म्यांनमार को कोई स्पेशल एम्बेसडर भेज कर मसले को हल करने की पहल करे. अगर  म्यानमार में शांति और सौहार्द बना रहें और वहां तनाव कम हो तो ये हमारे देश के लिए आर्थिक और साम्राज्यिक  तौर  पर अच्छा साबित होगा. क्यूंकि  देश के पूर्वात्तर राज्यों में होने वाले विद्रोह और हिंसा कर म्यानमार की सरहद में भाग जाने वाले उग्रवादियों पर भी हम अंकुश लगा सकते हैं.

अंतराष्ट्रीय समुदाय
अगर इस मामले में तुर्की को छोड़ दें तो किसी भी अन्य देश ने रोहिंग्या मसले को हल करने कोई ख़ास पहेल नही की है. हर बार पाकिस्तान, थाईलैंड और मलेशिया की सरकार के प्रतिनिधि सिर्फ मीडिया में आकर म्यानमार की निंदा का बयान दे देते हैं. इससे आगे बढ़ कर कुछ अरब देश और ईरान रोहिंग्या शरणार्थियों की मदद के लिए कुछ मिलियन डॉलर की मदद दे देते हैं. लेकिन तुर्की के अलावा किसी भी देश के प्रधानमंत्री या मंत्री ने इन रोहिंग्या से म्यानमार जाकर मुलाकात की है. न ही उनके लिए संयुक्त राष्ट्र या कोई अन्य अंतराष्ट्रीय प्लेटफार्म पर कोई आवाज़ उठाई है. अगर सच में विश्व ये चाहता है के इस मसले का हल निकले. तो सभी राष्ट्रों को मिलकर या तो रोहिंग्या को किसी और देश में विस्थापित करना होगा या म्यानमार पर कूटनैतिक दबाव बनाकर अन्य देशो में रह रहे शरणार्थियों का राजिस्टरेशन करवाकर म्यानमार को उन्हें स्मानपूर्वक अपने देश वापस बुलवाकर नागरिकता के अधिकार देने पर मजबूर करना होगा.

समस्या का समाधान
 1. इस मामले में अंतराष्ट्रीय समुदाय का कोई भी देश या समूह अपनी सेना को भेज कर इस देश के रोहिंग्याओ पर मयान्मार सरकार और बहुसंख्यांक समुदाय द्वारा किये जारहे ज़ुल्म और ज्यादती को रोक नहीं सकता. अगर देश पर हमला होगा तो इससे देश की  लोकतांत्रिक सरकार कमज़ोर होगी और मयान्मार की आर्मी को फिर से देश की कमान अपने हाथ में लेने का मौका मिल जाएगा. 

2. अगर तुर्की या अन्य कोई भी देश इस का हल मयान्मार पर फौजी करवाई में ढूंड रहा है तो ये देश में रह रहें रोहिंग्या के लिए और भी गलत साबित होगा. कई जमाने से वहां के शासक करता और धर्म गुरु एक दुसरे की सांठगाठ से बहुसंख्यांक समाज के दिल में रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति नफरत को हवा देते आये हैं. अगर फौजी करवाई होती है तो उसकी चपेट में मयान्मार के वो मासूम बौद्धमत के मानने वाले भी आयेंगे जो पूरी तरह इस प्रोपेगेंडे में अब तक नहीं आयें हैं.

3. अंतराराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए के वो मयान्मार के सब से बड़े सहयोगी चीन पर दबाव बनाएं. भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश का सहयोग लेकर मयान्मार सरकार का कुटनीतिक  स्तर पर घेराव करें और मयान्मार सरकार और वहां की आर्मी पर दबाव बनाये के रोहिंग्याओ को वो अपने देश का नागरिक माने और उनकी सुरक्षा के लिए ज़रूरी कदम उठायें.

4. दलाई लामा और मुस्लिम जमातो की मदद लेकर भारत सरकार  को पहेल करनी चाहिए के वो म्यानमार में बहुसंख्यांक और अल्प-संख्यांक के दिल में मौजूद नफरत को दूर करने के लिय एक अमन कारवाँ भारत से मयान्मार भेजे.

5. अंतराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए के मयान्मार के बौद्ध समाज को अपने देशो  में शिक्षा और रोज़गार के लिए स्कॉलरशिपस और विसा देकर उनको मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास करें.

अंतराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए के वो इस मसले को हल करने के लिए निरंतर वार्ता के मौके तलाश करें ताके किसी भी तरह से वहाँ की सरकार, सरकार के मुख्य  प्रतिनिधियों, प्रभावी धर्म गुरु और सामाजिक स्तर पर काम करने वाले स्वयंसेवक संघटन के साथ वार्ता होसके. निरंतर वार्ता का दौर चलता रहा तो  निकटतम भविष्य में इस मसले का हल निकालना संभव नज़र आता है.

साथ ही रोहिंग्या मुसलमानों को भी चाहिए के वो इस बात का ख्याल रखें के  हिंसा और उसके खिलाफ प्रति-हिंसा इस मामले का कोई हल नहीं है. गांधी के अहिंसात्मक संघर्ष से ही बड़ी से बड़ी ताकत को जमीन पर लाया जासकता है. जब भी सरकार किसी समूह के खिलाफ हिंसा करती है. तो उस्की कायरता सब के सामने आती है. लेकिन वही समूह जब इस का हिंसात्मक प्रतिकार करता है तो अंतराराष्ट्रीय स्तर पर ये कोई नही देखता के पहल किस ने की थी और फिर सरकारों को नैतिक बल मिल जाता है के वह इस हिंसा का जवाब हिंसा से दें. कुछ लोगो के सरकार के विरुद्ध हत्यार उठाने की सज़ा मासूमो और बेगुनाहों को भी मिलती है. अहिंसा ही मार्ग है जो आपकी लड़ाई को मजबूत और ताकतवर बनाता है भले ही आप कितने भी कम या कमज़ोर क्यूँ न हो.
उबैद बा हुसैन महाराष्ट्र के नांदेड निवासी उच्चशिक्षित युवा
सामाजिक कार्यकर्ता है.
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CITY TIMES

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