इस रिपोर्ट के आधार पर दायर एक जनहित याचिका पर दो दिन चली सुनवाई के बाद हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने इस मामले को केंद्रीय जाँच ब्यूरो यानी सीबीआई को सौंपने के आदेश दिए हैं.
याचिकाकर्ता ने इस गड़बड़ी के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी सहित 13 मंत्रियों और मुख्यसचिव सहित कई अधिकारियों को मिलाकर कुल 47 लोगों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामला दर्ज करके उन पर मुक़दमा चलाने का अनुरोध किया था.
अदालत ने जाँच के आदेश देते हुए सीबीआई के निदेशक को 26 जुलाई को अदालत में उपस्थित होने का आदेश दिया है ताकि उन्हें जाँच के विषय में आवश्यक दिशा निर्देश दिए जा सकें.
इसी दिन इस मामले की आगे सुनवाई होनी है.
इस वर्ष के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले आए इस मामले से जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के सत्तारूढ़ गठबंधन में अफ़रा-तफ़री फैल गई है. हालांकि इस पर सत्तारूढ़ गठबंधन की ओर से फ़िलहाल कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है.
याचिका
महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार योजना, इंदिरा आवास योजना और मध्यान्ह भोजन जैसी योजनाओं के लिए निकाली गई आकस्मिक राशि का कोई लेखाजोखा उपलब्ध न होना एक बड़ी गड़बड़ी का संदेह पैदा करता है.
पटना हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश रेखा मनहरलाल दोशित और न्यायमूर्ति सुधीर कुमार कटरियार की एक खंडपीठ ने गुरुवार को ये आदेश दिए हैं.
ये आदेश वकील अरविंद कुमार शर्मा की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद दिए गए हैं.
महालेखाकार ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 2002 से 2008 के बीच सरकारी खज़ाने से विभिन्न सरकारी योजनाओं पर खर्च के लिए निकाली गई 11,412 करोड़ की राशि का कोई विवरण उपलब्ध नहीं है.
ज़ाहिर है ये गड़बड़ी नीतीश कुमार के सत्ता में आने के पहले से ही शुरु हो चुकी थी. नीतीश सरकार 2005 में सत्ता में आई थी.
महालेखाकार ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार योजना और मध्यान्ह भोजन जैसी योजनाओं के लिए निकाली गई राशि का सही लेखाजोखा उपलब्ध न होना एक बड़ी गड़बड़ी का संदेह पैदा करता है.
दरअसल यह मामला सरकारी खज़ाने से निकाली जाने वाली आकस्मिक राशि और उसके खर्च के विवरण दिए जाने से जुड़ा है.
नियमानुसार जब सरकार खज़ाने से किसी भी योजना के लिए राशि निकालती है तो एक विवरण दिया जाता है जिसे अग्रिम आकस्मिक विपत्र यानि एसी बिल कहा जाता है. जब यह राशि खर्च कर ली जाती है तब संबंधित अधिकारियों की ओर से एक पूरा विवरण जमा करवाया जाता है जिसे विस्तृत आकस्मिक विपत्र यानि डीसी बिल कहा जाता है.
वर्ष 2007-08 में ही सरकारी खजाने से 3800 करोड़ रुपए निकाले गए जिसमें से सिर्फ़ 51 करोड़ रुपए का डीसी बिल जमा किया गया है और 3749 करोड़ रुपयों का कोई हिसाब उपलब्ध नहीं है
जानकार लोगों का कहना है कि डीसी बिल से ही प्रमाणित होता है कि राशि सही मद में खर्च की गई है या नहीं. यह बिल छोटे प्रशासनिक अधिकारियों से होते हुए मुख्य सचिव और मंत्रियों सहित मुख्यमंत्री तक फ़ाइलों के ज़रिए पहुंचता है.
याचिकाकर्ता के वकील दीनू कुमार ने बीबीसी को बताया कि महालेखाकार ने पाया है कि वर्ष 2002-2003 से लेकर वर्ष 2007-2008 के बीच 11,412 करोड़ रुपए की राशि का डीसी बिल ही जमा नहीं करवाया गया है.
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा, “वर्ष 2007-08 में ही सरकारी खज़ाने से 3800 करोड़ रुपए निकाले गए जिसमें से सिर्फ़ 51 करोड़ रुपए का डीसी बिल जमा किया गया है और 3749 करोड़ रुपयों का कोई हिसाब उपलब्ध नहीं है.”
उनके अनुसार याचिकाकर्ता की ओर से अदालत से कहा गया है कि इतनी बड़ी राशि की गड़बड़ी मंत्रियों और आला अधिकारियों की मिलीभगत के बिना संभव नहीं है.
हाईकोर्ट के इस फ़ैसले के बाद सत्तारूढ़ गठबंधन में अफ़रा-तफ़री मच गई है.
इससे पहले पटना हाईकोर्ट ने वर्ष 1996 में 950 करोड़ रुपयों के एक घोटाले की जाँच सीबीआई को सौंपी थी, जिसे चारा घोटाले के नाम से जाना जाता है और इसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के शामिल होने के आरोप हैं.
यह मामला अभी अदालत में चल रहा है.
प्रतिक्रिया
कथित ‘वित्तीय गड़बड़ियों’ की सीबीआई जांच संबंधी अदालती आदेश पर बिहार का सत्ता पक्ष तत्काल कोई प्रतिक्रिया देने से बच रहा है.
फिर भी राज्य के उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा है, ”यह किसी वित्तीय घपले का मामला नहीं है. सिर्फ राशि के ख़र्च संबंधी उपयोगिता प्रमाणपत्र समय पर जामा नहीं किये जाने का मामला दिखता है. वैसे हाई कोर्ट के आदेश का ठीक से अध्ययन कर लेने के बाद ही इस बाबत कुछ और कहा जा सकता है.”
जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय प्रवक्ता शिवानन्द तिवारी का कहना है, ”यह कोई घोटाला नहीं, बल्कि ख़र्च का हिसाब-किताब रखने में लापरवाही का मामला लगता है. इस संबंध में अदालती आदेश को पूरी तरह समझ लेने के बाद ही प्रतिक्रिया दी जा सकती है, क्योंकि इस से नियम-कानून के कई पहलू जुड़े हुए हैं.”
उधर राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने भी इस पर तुरंत कुछ बोलने से बचते हुए सिर्फ इतना कहा है कि कोर्ट के आदेश को बिना देखे प्रतिक्रिया देना उचित नहीं होगा.
दरअसल इस कथित वित्तीय घपले के जिस कार्यकाल का उल्लेख संबधित याचिका में है, वो राबड़ी देवी सरकार के कार्यकाल से भी जुड़ा हुआ है.