करोडो होकर भी तुम घुटने टेक बैठे हो, मुझे वो 313 का लश्कर याद आता है

बद्र की लड़ाई सन् 624 में नवोदित मुस्लिम गुट और मक्का के क़ुरैश क़बीले की सेना के बीच आधुनिक सउदी अरब के हिजाज़ क्षेत्र में 13 मार्च को लड़ा गया था। इसका उद्देश्य इससे पहले हुई एक ख़ानदानी लड़ाई में हुई हार का बदला लेना था। इसमें मुस्लिम सेनाओं का नेतृत्व उनके पैग़म्बर मुहम्मद ने किया था और अंततः उनकी जीत हुई। इससे प्रभावित होकर ही कई लोग मुहम्मद साहब को ईश्वर का दूत समझने लगे थे और इससे प्रोत्साहित होकर ही मुस्लिम गुट बाद में (सन् 632 में) मक्का की ओर कूच कर पाया – जिस घटना को ‘हिज्र’ भी कहते हैं।[1][2]

बद्र, ओहोद की जंग और कर्बला के शहीद

ख़ुदा की जानिब से एक मोमिने कामिल के लिये बेहतरीन तोहफ़ा और हदिया मौत के अलावा कुछ और नही हो सकता है। लेकिन अगर उस की सूरत बदल जाये, बिस्तर के बजाए मैदान और राहे ख़ुदा में जंग व जिहाद करता हुआ कोई मुजाहिद मौत को गले लगा ले तो उसे दीनी सक़ाफ़त और अहले बैत (अ) के बुलंद व बाला फ़रहंग में सुर्ख़ मौत से ताबीर किया जाता है।

जहाँ मुजाहिद ख़ुद अपने ही ख़ून में ग़लताँ, मुलाक़ाते परवरदिगार के लिये दौड़ता है, बल्कि फ़रहंगे अहले बैत (अ) में शहादत, बसीरत व आगाही के साथ मौत के इंतेख़ाब का नाम है। ऐसे में मौत मुजाहिद राहे ख़ुदा का तआक़ुब नही करती, बल्कि ख़ुद मुजाहिद मौत का पीछा करता है।

वह मारेकए बद्र व ओहद हो या मारेकए करबला, दोनो जगह एक मुजाहिद सोच समझ कर मौत की तरफ़ बढ़ता हुआ नज़र आता है। इस लिये कि जब इमामे मासूम (अ), हाकिमे आदिल उम्मत को जिहाद के लिये बुलाए तो हर बा बसीरत के लिये दुनिया बे लुत्फ़ हो जाती है और वह बे सबराना सदाए हक़ को लब्बैक कहता है। मदीने का वह नव दामाद, जिस ने सिर्फ़ एक रात अपनी नव अरुस के साथ गुज़ारी, जब उस की बसीरत की आँख़ें खुल गयीं तो वह एक रात की बियाही दुल्हन को ख़ैर बाद कह कर मैदाने बद्र में पहुच कर अरुसे शहादत को गले लगा लेता है। यहाँ तक कि हुज़ूरे अकरम (स) बशारत देते हैं कि इस नव दामाद को कोई और नही बल्कि फ़रिश्ते ग़ुस्ल देते हैं और उस जवान को ग़सीलुल मलाएका का ख़िताब मिलत है। सच तो यह है कि बद्र व ओहद के बा ईमान सूरमा न होते तो इस्लाम की पुश्त मज़बूत न होती और अगर उन्ही जज़्बात से सरशार नवास ए रसूल (स) हुसैन बिन अली अलैहिमस सलाम के पाए रकाब में मुजाहेदिने करबला वक़्त के इमामे आदिल और पेशवा के पीछे पीछे हरकत न करते तो बद्र से क़वी व मज़बूत बन कर उभरने वाला इस्लाम फिर शाम के कुफ़्र व निफ़ाक़ आलूद लश्कर के मुक़ाबले में सुस्त व ज़ईफ़ हो जाता। लिहाज़ा करबला के मुजाहिदीन ने अपने वक़्त के इमाम की आवाज़ पर यूँ लब्बैक कही कि दश्ते नैनवा में आते हुए कुफ़्र व ज़लालत के नुमाईदों में हलचल मच गई।
इधर जवारे हुसैनी में मौजूद एक एक सिपाही अपनी अपनी जगह उसी शान व शौकत के साथ मैदाने नबर्द में जाने के लिये बेताब था, जिस तरह नबी ए अकरम (स) की क़यादत में शोहदा ए बद्र पेश क़दमी कर रहे थे।

मगर इस फ़र्क़ के साथ कि वहाँ सब शहीद न हुए, बल्कि कुछ मुजाहिदीन बच भी गये और सिपाह सालारे इस्लाम (यानी सरवरे कायनात (स)) महफ़ूज़ रहे मगर करबला वह मारेक ए हक़ व बातिल है, जहाँ हर मुजाहिद अपने इमाम के हाथों पर बैअत करने के बाद दुनिया से बेगाना हो गया और सभी असहाब को मरगे गुल रंग (शहादत) को गले लगाने का शौक़ उन के वुजूद में लबरेज़ हो गया, यहाँ कि बुढ़े, जवान, नौजवान, बच्चे सब के सब इस अज़्म व इरादे पर मुसम्मम हो गये, न तो मुजाहिदीन को दुनिया की हवस है व क़ायद में बाक़ी रहने की तमन्ना, इस की वजह यह है कि बद्र में क़ायद व सिपाह सालार का बाक़ी रहना बस हिकमत के मुताबिक़ था और मारेक ए करबला में क़ायद व रहबर यानी इमाम हुसैन (अ) का शहीद हो जाना ही इस्लाम के हक़ में मुफ़ीद था। इस लिये सरकारे सैयदुश शोहदा ने मुख़्तलिफ़ ख़ुतबों में अपने साथियों से ख़िताब करके फ़रमाया: मौत बनी आदम के गले का हार है, जिस तरह दुल्हन अपने गले में हार डालती है।

और फिर फ़रमाया ……………………….. सुबहे आशूर अपने असहाब से हज़रत सैयदुश शोहदा यूँ गोया हुए:

ऐ करीम लोगो, सब्र से काम लो, इस लिये कि मौत तुम्हारे लिये एक पुल है, जिस से तुम सख़्तियों और मुसीबतों से उबूप कर के ख़ुदा की वसीअ व अरीज़ जन्नत और उस की दायमी नेमत के हक़दार होने वाले हो।

सच तो यह है कि करबला वालों ने शहादत को फिर से ज़िन्दा कर के उस के मफ़हूम से दुनिया वालों को रु शनास करा दिया। लिहाज़ा हमारा सलाम हो उन मुक़द्दस व पाकीज़ा अज़्म व हौसले पर।

CITY TIMES

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