कैसे हुई शुरुआत ताजिये की? क्या है तैमूरलंग से कनेक्शन ?फिजूल खर्च हराम है, तो फिर ये क्या है ?
कुछ मुसलमानों का पाखंड
कल मुहर्रम पे लाखो लोगो के समय और पैसे की बर्बादी करके हम अपनी अकीदत की नुमाइश करेंगे। क्या समझते हो , चंदा वसूली के पेसे से बीच सड़क पे ताजिया खड़ा करके उसपे अगरबत्ती , फूल, मेहंदी चढाकर सवाब हासिल करोगे? मेले ठेले लगाकर, ढोल पीट कर, खुद को जख्मी करके हजरत इमाम हुसैन रजि. को याद करोगे?? शोर शराबा, हुड़दंग, ये सब इस्लाम नही बल्कि खुला पाखण्ड हे। ताजिये पे डीजे और कव्वालिया बजाकर और ढोल की खाल उधेड़ कर हम सिर्फ लोगो का चैन हराम कर सकते हे, इससे कोई खुलूश हासिल नही हो सकता…। कर्बला के शहीदों की याद ताजा करनी हे तो किसी अच्छे आलिम की शोहबत में बैठकर वाक्या सुने और उससे सबक हासिल करे, रोज़ा रखे, तिलावत करे । अल्लाह ने आपको दिया हे तो बजाय ताजिये को चंदा चढ़ाने के वही पैसा किसी यतीम गरीब पे खर्च करे, बच्चो के लिए शर्बत का इंतेजाम करे, यकीकन अल्लाह की रज़ा इसी में हे।
-अब्बास पठान
कैसे हुई ताजियों की शुरुआत
ताजियों की परंपरा…..
मुहर्रम कोई त्योहार नहीं है, यह सिर्फ इस्लामी हिजरी सन्का पहला महीना है। पूरी इस्लामी दुनिया में मुहर्रम की नौ और दस तारीख को मुसलमान रोजे रखते हैं और मस्जिदों-घरों में इबादत की जाती है। क्यूंकि ये तारिख इस्लामी इतिहास कि बहुत खास तारिख है…..रहा सवाल भारत में ताजियादारी का तो यह एक शुद्ध भारतीय परंपरा है, जिसका इस्लाम से कोई ताल्लुक़ नहीं है।
इसकी शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी, जिसका ताल्लुक शीआ संप्रदाय से था। तब से भारत के शीआ- सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है) की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं। भारत में ताजिए के इतिहास और बादशाह तैमूर लंग का गहरा रिश्ता है। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और विश्व विजय उसका सपना था। सन् 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया। फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ
98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में मेहमूद तुगलक से युद्ध कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर लंगड़ा होता है। वह दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था।
तैमूर लंग शीआ संप्रदाय से था और मुहर्रम माह में हर साल इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफर के लिए मना किया था। बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर खुश हो जाए। उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया। कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से ‘कब्र’ या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया। तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई।
खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शीआ संप्रदाय के नवाब थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया तब से लेकर आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है। जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शीआ बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। 68 वर्षीय तैमूर अपनी शुरू की गई ताजियों की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी में मुब्तिला होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। बीमारी के बावजूद उसने चीन अभियान की तैयारियां शुरू कीं, लेकिन 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में तैमूर का इंतकाल (निधन) हो गया। लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही। तुगलक-तैमूर वंश के बाद मुगलों ने भी इस परंपरा को जारी रखा। मुगल बादशाह हुमायूं ने सन् नौ हिजरी 962 में बैरम खां से 46..तौला के जमुर्रद (पन्ना/ हरित मणि) का बना ताजिया मंगवाया था। कुल मिलकर ताज़िया का इस्लाम से कोई ताल्लुक़ ही नही है….लेकिन हमारे भाई बेहेन जो न इल्म है और इस काम को सवाब समझ कर करते है उन्हें हक़ीक़त बताना भी हमारा ही काम है……अललाह हमें सही समझ दे
सोशल डायरी के लिए -फरहीन नफीस