जंग-ए-आजादी के सबसे पहले शहीद मौलाना फजले हक को सलाम -राजीव शर्मा

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जब कभी मैं कब्रिस्तान या श्मशान के नजदीक से गुजरता हूं तो वहां बहुत सुकून महसूस करता हूं। मैं यहां ऐसे कई लोगों को बराबरी की सतह पर सोता हुआ पाता हूं जिनके हाथ जिंदगी भर खूब भरे रहे लेकिन अब खाली हैं। कुछ हाथ ऐसे भी हैं जो अब भी खाली हैं और तब भी खाली थे, मगर कोई मलाल नहीं। जब मैं गांव के श्मशान घाट में पंछियों को दाना डालने जाता था तो जलती चिताओं को देखकर दुआ करता था कि ख़ुदा उस शख्स के साथ रहम बरते। यही दुआ कब्रिस्तान वालों के लिए भी करता था।

वो खुशनसीब होते हैं जिनका कब्रिस्तानों या श्मशानों में पहुंचने के बाद भी इंतजार किया जाता है। अक्सर तो लोग उन्हें भुला ही देते हैं। इन्हीं भुला दिए गए नामों में से मुझे एक नाम याद आता है – मौलाना फ़ज़्ले हक़ खै़राबादी। मौलाना साहब का इंतजार करने वाले तो शायद अब न होंगे, पर उन्हें जरूर इंतजार होगा कि कोई आए और बार-बार बताए कि उनका प्यारा वतन हिंदुस्तान आज़ाद हो गया है, क्योंकि ये शब्द सुनने की ख्वाहिश दिल में लिए ही वे परलोक सिधार गए।


जब मैंने सबसे पहले उनके बारे में पढ़ा तो ताज्जुब हुआ कि इतने महान व्यक्ति की बातें मैंने पहले क्यों नहीं पढ़ी। मौलाना फ़ज़्ले हक का जन्म 1797 में हुआ था। वे क़ुरआन के बहुत बड़े विद्वान थे। हिंदी के अलावा उर्दू, अंग्रेजी, अरबी और फारसी भी जानते थे।

अपनी काबिलियत के दम पर वे तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते गए और लखनऊ के चीफ जज बन गए। इस दौरान उन्होंने अंग्रेजी राज के अत्याचारों को ग़ौर से देखा। किसान, मजदूर और आम अवाम, जो इस मुल्क के असली मालिक थे, उनकी हालत बदतर हो गई थी। वहीं दूर देश से आए ब्रिटिश उनके मालिक बन बैठे थे।

एक दिन मौलाना साहब ने फतवा दिया कि देश की सेवा और जुल्म से मुक्ति के लिए आज़ादी जरूरी है। आज़ादी के लिए जरूरी है कि अंग्रेजों को मार बाहर भगाया जाए। उनका यह पैगाम चारों ओर फैल गया। उन्हीं दिनों की बात है, देश में 1857 की क्रांति हो रही थी। मौलाना साहब के उस फतवे ने लोगों में जोश भर दिया। जहां-तहां जालिम अंग्रेज अफसरों पर प्रहार होने लगे। कई मारे भी गए।


लोगों के दिलों में आज़ादी की उमंग थी जो उस वक्त पूरी नहीं हो सकी। अंग्रेज उस क्रांति को दबाने में कामयाब हो गए। अब वे बदला लेने को उतारू थे। मौलाना साहब को पकड़ लिया गया। उन पर मुकदमा चलाया गया। किस्मत का खेल देखिए, कभी वे जज की कुर्सी पर बैठ फैसला सुनाया करते थे, आज खुद अपना फैसला सुनने कठघरे में खड़े थे!

अंग्रेजों ने गवाह जुटाए, लालच दिया, धमकाया और मुकदमे का सिलसिला शुरू हुआ। ज्यादातर गवाह मौलाना साहब की बहुत इज्जत करते थे। उन्होंने निवेदन किया कि आप फतवे वाली बात से साफ मुकर जाएं और कह दें कि मैंने अंग्रेजों को मार भगाने का कोई फतवा नहीं दिया, मगर मौलाना साहब नहीं माने।

उन्होंने अदालत में हामी भरी कि फतवे वाली बात बिल्कुल सच है और भारत पर भारत के लोगों का ही शासन होना चाहिए। इसके बदले मौलाना साहब को कठोर कारावास का इनाम मिला। उन्हें जहाज में बैठाकर अंडमान भेज दिया गया। वहां कालापानी की सजा काटते हुए 1861 में इस महान देशप्रेमी ने अपनी आंखें मूंद लीं और हमेशा के लिए सो गया। उसकी एक ही इच्छा थी कि आज़ादी का सवेरा देखे, जो उस जिंदगी में पूरी नहीं हो सकी। कोई जाए और कह दे, न केवल मौलाना की कब्र्र से बल्कि तमाम शहीदों की कब्रों और समाधियों से कि हमारा हिंदुस्तान आज़ाद हो गया है, मगर ऐ शहीदों, हम तुम्हें भूल गए!

– राजीव शर्मा (कोलसिया) –

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