‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं !’ मगर क्यों ? “यह तो नस्लवाद है” -कंवल भारती

SocialDiary
मशहूर चिंतक कंवल भारती की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्रियाकलापों पर एक विस्तृत समीक्षा

आरएसएस के राष्ट्र जागरण अभियान की पहली पुस्तिका का नाम है—‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं.’ इसका दूसरा उपशीर्षक है—‘हिन्दुत्व : एक दृष्टि और जीवन पद्धति.’ इसके आरम्भ में चार विभागों में यह बताया गया है कि हमें हिन्दू होने पर गर्व क्यों करना चाहिए?

दरअसल आरएसएस का मिशन भारत को एक राष्ट्र बनाने का नहीं है, बल्कि, भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का है. वह जानता है कि भारत को एक राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि उसके लिए उसे प्रांतीय और भाषाई राष्ट्रीयताओं से टकराना होगा. जहां वह उलझना नहीं चाहता. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि लोगों में भारतीयता का भाव है ही नहीं, पर वह केवल भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेटमैच या युद्ध के दौरान ही नजर आता है. हालंकि आरएसएस उसमें भी हिन्दू-मुस्लिम का भाव देख लेता है. इसलिए उसके नेता भारतीयत्व को ही हिन्दुत्व कहते हैं, और ‘गर्व से कहो हम भारतीय हैं’, की जगह ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’, का नारा देते हैं.

‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ के संबंध में आरएसएस ने चार विभाग किए हैं—हिन्दू, हिन्दुस्थान, हिन्दुत्व और हिन्दू विचार की श्रेष्ठता. ये चार विभाग वैसे ही हैं, जैसे चार वर्ण. पर, यहाँ मैं इस सवाल पर विचार नहीं करूँगा कि हिन्दू कौन है, और वेदों से लेकर उपनिषद तक और पुराणों से लेकर महाभारत तक किसी भी ग्रन्थ में हिन्दू शब्द क्यों नहीं मिलता है? यहाँ तक कि जैन और बौद्ध साहित्य में भी हिन्दू शब्द नहीं मिलता है. पर, यह सवाल आरएसएस के लिए महत्वपूर्ण नहीं है. और इसलिए नहीं हैं, क्योंकि उसके पास इसका जवाब नहीं है.
‘हिन्दू’ के अंतर्गत आरएसएस ने अजीबोगरीब बातें कही हैं. इन बातों को आरएसएस के नेता अक्सर बोलते ही रहते हैं. पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी डाक्टरों और वैज्ञानिकों की सभाओं में इन बातों को बड़े गर्व से सुनाया था. आइये इनमें से  कुछ बातों पर विचार करते हैं. यथा :


‘हिन्दुओं ने गत दस हजार वर्ष के अधीन अपने इतिहास में राजनीतिक विजय के द्वारा किसी भी देश को अपना उपनिवेश नहीं बनाया.’

अगर आरएसएस के हिन्दुओं का ज्ञात इतिहास दस हजार वर्षों का है, तो जाहिर है कि इसमें वेदों से लेकर महाभारत तक का काल शामिल है. फिर आरएसएस रावण की लंका को क्यों भूल गया, जिसे राजा रामचन्द्र ने जीतकर ब्राह्मणों का उपनिवेश बनाया था?

लेकिन भारत का वास्तविक राजनीतिक इतिहास नागाओं के उदय से आरम्भ होता है, जो अनार्य थे. डा. आंबेडकर लिखते हैं, ‘भारत ने प्राचीन काल में राजनीति के क्षेत्र में जो ख्याति और कीर्ति अर्जित की थी, उसका सारा श्रेय नागाओं को जाता है. ये नागा ही थे, जिन्होंने भारत को विश्व-इतिहास में महान और गौरवशाली बनाया था.’ इसके बाद ‘भारत के राजनीतिक इतिहास की पहली युगान्तरकारी घटना 642 ई. पू. में बिहार में मगध साम्राज्य की स्थापना की है, जिसका संस्थापक नाग जातीय शिशुनाग था.’  इसके बाद नन्द साम्राज्य स्थापित हुआ, और उसके अवसान के बाद मौर्य साम्राज्य अस्तित्व में आया. इसी मौर्य वंश के अंतिम सम्राट बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र सुंग ने, जो सामवेदी ब्राह्मण था, सम्राट को मारकर ब्राह्मण राज की स्थापना की.

पुष्यमित्र सुंग ने अपने राज में वही किया, जो आज आरएसएस कर रहा है. पुष्यमित्र सुंग का दुश्मन बौद्ध था, सो उसने बौद्ध विहारों को ध्वस्त कराया और बड़े पैमाने पर बौद्ध भिक्षुओं का कत्लेआम कराया. आरएसएस का दुश्मन मुसलमान और ईसाई हैं, सो उसने चर्च और मस्जिदें ध्वस्त करायीं, और ईसाईयों तथा मुसलमानों का भारी कत्लेआम कराया. अत: कहना न होगा कि सुंग-काल का ब्राह्मण ही आज का हिन्दू आक्रामक बन गया है. किन्तु अगर हिन्दुओं ने कोई राजनीतिक उपनिवेश नहीं बनाया, तो इसलिए कि वे सांस्कृतिक उपनिवेश बनाने में यकीन करते थे. इसलिए, उन्होंने उन सभी विदेशियों को, जो उनके सांस्कृतिक गुलाम बन सकते थे, अपने फोल्ड में शामिल कर लिया. पर उनके दुर्भाग्य से ईसाई और मुसलमान उनके  फोल्ड में नहीं आए. इसीलिए वे उनके दुश्मन नम्बर एक बन गए. यहाँ तक हिन्दुओं के किसी भी देश को अपना उपनिवेश न बनाने की बात है, तो हकीकत यह है कि उनमें वह राजनीतिक क्षमता ही नहीं थी, जो किसी देश को उपनिवेश बनाते. आरएसएस भूल जाता है कि हिन्दुओं की राजनीतिक व्यवस्था उनकी वर्णव्यवस्था है, जिसमें केवल एक वर्ण— क्षत्रियों को ही युद्ध करने का अधिकार प्राप्त है, शेष को नहीं.
इसलिए वे उन मुस्लिम और ईसाई हमलावरों के आगे, जो जाति-वर्ण-विहीन थे, टिक नहीं सके, और उनके आसान शिकार हो गए. पर, अब जब लोकतंत्र में जनता के वोट से भाजपा की सरकारें बन गई हैं, तो आरएसएस हिन्दू-गौरव की शेखी बघार रहा है.


आरएसएस का दूसरा विचारणीय बिंदु है :

    ‘हिन्दुओं ने संख्या प्रणाली का अन्वेषण किया. पांचवीं शताब्दी में आर्यभट्ट ने शून्य का प्रयोग किया. आर्यभट्ट से भी हजारों वर्ष पूर्व
    वैदिक कालखंड में शून्य का ज्ञान था. हिन्दुओं ने ही विश्व को दशमलव प्रणाली दी.’

राहुल सांकृत्यायन का मत है कि ‘दर्शन के क्षेत्र में राष्ट्रीयता की तान छेड़ने वाला खुद धोखे में है, और दूसरों को भी धोखे में डालना चाहता है.’ (दर्शन-दिग्दर्शन, भूमिका, पृ. iii,) यह सिद्धांत ज्ञान के क्षेत्र में भी लागू होता है. आरएसएस ने शून्य और दशमलव प्रणाली को लेकर हिन्दू राष्ट्रीयता की तान छेड़ी है, जिसके वह खुद भी धोखे में है, और दूसरों को भी धोखे में डालना चाहता है.

निस्संदेह यह खोज भारत की है, पर इसे हिन्दू अस्मिता से नहीं जोड़ा जा सकता. प्रथम तो आर्यभट्ट नाम ही गलत है. सही नाम ‘आर्यभट’ है. ब्राह्मण लोग उन्हें ब्राह्मण बताने के उद्देश्य से उनका नाम आर्यभट्ट लिखते हैं. आर्यभट के ग्रन्थ की खोज उनके जन्म के 1400 साल बाद डा. भाऊ दाजी लाड ने केरल में की थी. उसके बाद ही दुनिया ने उनको जाना. उन्होंने ही अपने निबन्ध में बताया था कि शुद्ध नाम आर्यभट है, न कि आर्यभट्ट. लेकिन आर्यभट ने शून्य और दशमलव पद्धति की खोज नहीं की थी.

आर्यभट अपनी जिस मौलिक खोज के लिए जाने जाते हैं, आरएसएस उसका जिक्र नहीं करता. और इसलिए नहीं करता, क्योंकि वह खोज श्रुति-स्मृति और पुराणों के विरुद्ध थी. आर्यभट, जिनका जन्म 476 ईस्वी में हुआ था, वह पहले भारतीय वैज्ञानिक थे, जिन्होंने यह खोज की थी कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, और पृथ्वी के परिभ्रमण के समान ही नक्षत्र दिन होते हैं. साथ ही उन्होंने आस्तिक दर्शन के विपरीत पांच तत्वों को न मानकर, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, इन चार तत्वों को माना था, जिन्हें चार्वाकों और बुद्ध ने माना था.

यह आर्यभट का एक नया क्रांतिकारी सिद्धांत था, जिसने वेदों और स्मृति-शास्त्रों की मान्यताओं पर सवाल खड़े कर दिए थे. इसलिए, ब्राह्मण उनके इस सिद्धांत के विरोधी हो गए थे. उन पर सबसे बड़ा हमला करने वाले ब्राह्मण गणितज्ञ-ज्योतिषी वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त थे, जिन्होंने उनके ज्ञान को मिथ्याज्ञान तक कह दिया था. अगर गणितज्ञ गुणाकर मुले के खुलासे को मानें, तो ‘आर्यभट की मान्यताओं को कुचलने, बदलने और मिटा देने के सभी संभव प्रयास किए गए, सतत सदियों तक.’


(भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद की शोध पत्रिका, ‘इतिहास’, अंक 3, जनवरी-दिसम्बर, 1994, पृष्ठ 26-37)
दर्शन में शून्य का प्रतिपादन बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने किया था, जिनका समय 175 ई. था. किन्तु गणित में शून्य अथवा दाशमिक स्थानमान अंक पद्धति की खोज निश्चय ही भारत में हुई थी, पर इसका आविष्कारक कौन है, यह अज्ञात है. 78 ईसवी में शक सम्वत आरंभ होता है. और कहा जाता है कि ईसा की प्रथम सदी में शून्ययुक्त दाशमिक स्थानमान अंक पद्धति की खोज हुई. आर्यभट का काल पांचवी सदी का है. वह दशमलव प्रणाली से परिचित थे. यानी, यह प्रणाली उनके समय में मौजूद थी, पर वह इसके आविष्कारक नहीं हैं.

(‘संसार के गणितज्ञ’, गुणाकर मुले, राजकमल प्रकाशन, 1992, पृष्ठ 380)

असल में दशमलव प्रणाली का प्रचलन पहली दफा भारतीय जनजातियों में मिला था. इसलिए इस प्रणाली की आविष्कारक भारतीय जनजातियां हैं, न कि कोई व्यक्ति विशेष. किन्तु इसे हिन्दू अस्मिता से जोड़ना तो सर्वथा आरएसएस का पाखंड ही है.
हिन्दू के रूप में गर्व करने की एक बात यह भी–

        सभी यूरोपीय भाषाओँ की जननी संस्कृत है .

चूँकि आरएसएस एक धर्म और एक नस्ल को अपने चिंतन का आधार मानता है, इसलिए संस्कृत के साथ उसका मोह नस्लवादी है. किसी समय संस्कृत ब्राह्मणों की वर्चस्ववादी भाषा थी, जैसे आज अंग्रेजी है. यह भी दिलचस्प है कि संस्कृत की तरह उसका नस्लीय सिद्धांत भी यूरोपीय है. गोलवरकर के नस्लीय सिद्धांत में ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च है. संस्कृत भी इसी सर्वोच्च वर्ग की भाषा रही है. इसीलिए ब्राह्मण इस पर ठीक ही गर्व करता है. किन्तु, हिन्दू के नाम पर अन्य जातियां इस पर क्यों गर्व करें, जबकि उन्हें इसे पढ़ने का अधिकार ही नहीं था. आज भी भारतीय सरकारें संस्कृत के प्रसार पर प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये खर्च कर रही हैं, इस धन से संस्कृत का कितना प्रसार हुआ है?

अगर हम 2001 की जनगणना रिपोर्ट को देखें, तो पता चलता है कि सवा सौ करोड़ देशवासियों में केवल 14,135 भारतीयों ने यह दर्ज कराया था कि संस्कृत उनकी प्रथम भाषा है. जबकि हिन्दू राष्ट्र कहे जाने वाले नेपाल में यह संख्या दो हजार तक भी नहीं बढ़ सकी. क्या संस्कृत एक मृतक भाषा है, जो अब जीवित नहीं हो सकती? ऐसा कहने वालों की कमी नहीं है. परन्तु यह सच है कि हिन्दू धर्मशास्त्रों के अध्ययन के लिए संस्कृत का पठन-पाठन आवश्यक है. पर इसे इस रूप में प्रचारित नहीं किया जा सकता कि यह हिन्दुओं की पहली भाषा है. अक्टूबर 2012 में सामाजिक कार्यकर्त्ता हेमंत गोस्वामी ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट में यह याचिका दायर की थी कि संस्कृत को अल्पसंख्यक भाषा घोषित किया जाए. शायद इसके पीछे भी राजनीति थी. पर वह अल्पसंख्यक भाषा है. इसमें संदेह नहीं.


अब देखते हैं, आरएसएस ‘हिन्दुस्थान’ और ‘हिन्दुत्व’ पर क्या कहता है.

‘हिन्दुस्थान’ के अंतर्गत आरएसएस ने भारत के बारे में अल्बर्ट आइंस्टीन, मार्क ट्वेन, रोम्याँ रोलाँ, मैक्स मुलर, बिल ड्यूरांट, और आर्नाल्ड
जोसेफ टायनबी के विव्हारों को उद्धृत किया है. कुछ विचार उल्लेखनीय हैं.

मैक्स मुलर का विचार है— ‘यदि मुझसे कोई पूछे कि किस आकाश के तले मानव मन अपने अनमोल उपहारों समेत पूर्णतया विकसित हुआ है, जहां जीवन की जटिल समस्याओं का गहन विश्लेषण हुआ और समाधान भी प्रस्तुत किया गया, तो मैं भारत का नाम लूँगा.’

यह उस व्यक्ति का विचार है, जो कभी भारत नहीं आया था, और जिसने यहाँ के लोगों के जीवन को देखा तक नहीं था. बिल ड्यूरांट का यह विचार दिया गया है— ‘हमारे आक्रमण, उद्दंडता एवं लूटपाट के बदले भारत हमें सिखायेगा सहिष्णुता और परिपक्व मन की मृदुता और अजेय आत्मा का निश्छल संतोष, सामंजस्य भावना की शीतलता तथा सभी प्राणिमात्र से एकरूपतायुक्त शांतिप्रद स्नेह.’

यदि बिल ड्यूरांट ने अस्पृश्यता, स्त्री वैधव्य और सतीप्रथा की भयावहता को देख लिया होता, तो उसके विचार निश्चित रूप से बदल जाते.

आर्नाल्ड जोसेफ टायनबी का यह विचार उद्धृत किया गया है— ‘मानव जाति के इतिहास के इस भयानक काल में सम्राट अशोक, रामकृष्ण परमहंस और महात्मा गाँधी द्वारा बताया हुआ प्राचीन भारत का मार्ग ही उद्धार का एकमात्र मार्ग है.’

इस विचार में आधुनिकता का ही विरोध दिखाई दे रहा है. इसलिए यह आरएसएस के अनुकूल भी है.

रोम्याँ रोल्याँ, जिन्होंने महात्मा गाँधी, रामकृष्ण और स्वामी विवेकानंद के जीवन-चरित्र  लिखे थे, का यह विचार दिया गया है— ‘मानव ने आदिकाल से जो सपने देखने शुरू किए, उनके साकार होने का इस धरती पर कोई स्थान है तो वह है भारत.’

पता नहीं यह महाशय किन सपनों की बात कर रहे थे? इन विदेशी विद्वानों के विचार भारत के बारे में हैं, गनीमत है कि हिन्दुत्व के बारे में नहीं हैं.

‘हिन्दुत्व’ पर गर्व करने के लिए आरएसएस ने आर्थर शोपेनहावर, हेनरी डेविड थारो, वारेन हेस्टिंग्स, राल्फ वाल्डो इमर्सन, एनी बेसेंट, आल्डस हक्सले, विल्ह्म वान हम्बोल्ट, नानी पालखीवाला, स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गाँधी के विचारों को आधार बनाया है. इन सभी महानुभावों ने वेदांत और गीता की जमकर तारीफ़ की है.

एनी बेसेंट ने तो यहाँ तक लिखा है कि भारत और हिन्दुत्व एक ही हैं. यह वही एनी बेसेंट हैं, जिन्होंने कांग्रेस के समाजसुधार का विरोध किया था, और अछूतों के लिए लिखा था कि ये गंदे रहते हैं, और इनके शरीरों से बदबू आती है, इसलिए इनके लिए अलग स्कूल खोले जाएँ, वरना सबके साथ बैठने अन्य बच्चे भी दूषित हो जायेंगे.

(देखिए, डा.आंबेडकर की किताब ‘गाँधी और कांग्रेस ने अछूतों के लिए क्या किया’)

नानी पालखीवाला, स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गाँधी सब उच्च जातियों के हिन्दू थे, इसलिए उन्हें दलितों के साथ हिन्दुओं के दुर्व्यवहार का कोई अनुभव नहीं था. पर क्या दलित भी इस हिन्दुत्व पर गर्व कर सकते हैं?

अंत में आरएसएस हिन्दुत्व पर गर्व करने का एक और दिलचस्प कारण बताता है :

‘वेदों में विद्युत शक्ति, चुम्बकत्व, ताप, प्रकाश, ध्वनि एवं ईश्वर की सुस्पष्ट परिभाषाएँ दी हुई हैं. यहाँ तक कि परमाणु मिश्रण का सिद्धांत भी वेदकाल में ज्ञात था.’

आरएसएस की मानें तो विजली की खोज सौ साल पहले नहीं, बल्कि हजारों साल पहले भारत में हुई थी. अगर ऐसा ही था, तो चाणक्य को तेल का दिया क्यों जलाना पड़ता था? पर कैसे न जलाते, बिजली का बल्ब तो 1878 में थामस एडिसन ने बनाया था.

दरअसल इस प्रचार का मतलब नस्लवाद है : हम दुनिया में सबसे श्रेष्ठ नस्ल हैं, अन्य राष्ट्रों की तुलना में हम अधिक सुसंस्कृत और उच्च नस्ल के वंशज हैं. ह्मारे पास उच्चतर शासन-व्यवस्था है और जीवन की सारी परिपूर्ण कलाएं हैं.
आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–4
कँवल भारती (लेखक के निजी विचार है, फेसबुक वाल से साभार)

loading…


CITY TIMES

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Cart

Your Cart is Empty

Back To Shop