रमज़ान में केन्टीन बंद करदी जाती हे
जुमे को आधे दिन से छुट्टी दे दी जाती हे
गैर मुस्लिम को उससे काफी दिक्कते उठानी पड़ती हे पुरे दिन भूका प्यासा रहना पड़ता हे किसी के सामने कुछ खा भी नहीं सकते रमज़ान में
आइये देखते हे हिन्दू विश्व विद्यालो का माहोल
जब बीएचयू में मैंने दाखिला लिया तो बड़े भाई से कई कहानियां सुनने को मिलती थीं. वो कहते थे कि मज़हब के नाम पर वहां के स्टूडेंट ही नहीं प्रोफ़ेसर भी भेदभाव करते हैं. मुझे भाई की आपबीती पर अफ़सोस होता था कि उन्हें इन सारी चीज़ों को झेलना पड़ा.
ग्रैजुएशन के दिनों में मेरा अनुभव भाई के अनुभव से बिल्कुल अलहदा रहा है. मुझे ग्रैजुएशन में ऐसे किसी भी तरह के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा. मैंने ग्रैजुएशन के बाद मास्टर भी बीएचयू से ही किया. मास्टर में मैंने मास कम्युनिकेशन में एडमिशन लिया था.
बीएचयू के मास कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट को सबसे रंगीन डिपार्टमेंट कहा जाता है. इसकी एक वजह तो वहां की एक प्रोफ़ेसर थीं. उनके कारण मास कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट अख़बारों की सुर्खियां बना करता था. हालांकि इन सुर्खियों से मेरा कोई लेना-देना नहीं था. सिर झुकाकर क्लास जाती थी और फिर उसी तरह वापस लौट जाती थी.
एक दिन मेरा भरोसा बुरी तरह से हिल गया. किसी ने प्रोफ़ेसर का नाम ग़लती से शबाना लिख दिया. अपना नाम शबाना देखते ही मोहतरमा बुरी तरह से भड़क गईं. उन्होंने ग़ुस्से में कांपते हुए पूछा, “किसने मेरा नाम ख़राब किया?”
स्टूडेंट की तक़दीर अच्छी थी कि वो अपना ही नाम असाइनमेंट पर लिखना भूल गया. क्लास में सन्नाटा पसरा था. प्रोफ़ेसर ने क्लास में कहा, “कान खोलकर सुन लीजिए, मुझे मुसलमानों से नफ़रत है. उनसे किसी भी तरह का संबंध मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है. यह हरकत दोबारा नहीं होनी चाहिए.”
मुझे तो एकदम से सांप सूंघ गया. मैं सोच रही थी कि क्या कोई प्रोफ़ेसर क्लास में इस तरह से बात कर सकती है? बीएचयू के लिए वह पहला वाकया था जब मैंने मुसलमानों को लेकर इतनी नफ़रत महसूस की. सवाल उठाना बेवकूफी थी. मैं बुरी तरह से डर गई थी
-अंजली शर्मा
(अंजली शर्मा स्वतंत्र लेखिका है, यह लेख उनके फेसबुक वाल से लिया गया है)