बाबरी मस्जिद, अस्पृश्यता और टीपू सुलतान से खीज

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कोई भी राजा हो क्या वह अन्याय इसलिए ना देखे और दंड ना दे कि यह अन्यायी उसके धर्म का नहीं और इस कारण से भविष्य में उस पर अन्य धर्मों के उपर किये अत्याचार के लिए गालियाँ दी जाएंगी ?

संघी और वाम इतिहासकारों ने टीपू सुल्तान को लेकर थोड़ा बड़ा दिल दिखाया पर अब टीपू सुल्तान को भी विवादित करने का प्रयास किया गया और औरंगजेब के जैसा बनाने का प्रयास किया गया , इतिहासकार टीपू सुल्तान के प्रति इस लिए झूठ ना लिख सके क्युँकि टीपू सुल्तान का सारा इतिहास बहुत करीब के दिनों का है और यह तथ्य और सबूत है कि वह अंग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हुए और अपनी पूरी सल्तनत बर्बाद कर दी।

दरअसल उनको बदनाम भी केवल सवर्ण कर रहे हैं , हकीक़त यह है कि यदि इस देश के इतिहास को यदि निष्पक्ष रूप से लिख दिया जाए तो आज अचानक पैदा हो गये बड़े बड़े महापुरुष नंगे हो जाएँ और जिन्हें खलनायक बनाया जा रहा है वह देश के महापुरुष हो जाएँ ।


राजाओं की साम्राज्यवाद के कारणों से हुई लड़ाईयों को हिन्दू मुस्लिम की लड़ाई की तरह से अब प्रस्तुत किया जा रहा है और लडाई में मरने वाले सैनिकों को गिन गिन कर बताया जा रहा है कि इतने वध उस मुस्लिम शासक ने किये जैसे हिन्दू राजाओं ने युद्ध में विरोधी सेनाओं का धर्म देखकर ही मारा हो कि केवल मुस्लिम सैनिक मारें जाएँ हिन्दू सैनिकों को कोई नुकसान ना हो चाहे विरोधी सेना का ही क्युँ ना हो ।

तब तो ऐसा कुछ नहीं हुआ पर अब ऐसा ही किया जा रहा है ।
ब्रिटेन की नेशनल आर्मी म्यूजियम ने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने वाले 20 सबसे बड़े दुश्मनों की लिस्ट बनाई है जिसमें केवल दो भारतीय योद्धाओं को ही इसमें जगह दी गई है

नेशनल आर्मी म्यूजियम के आलेख के अनुसार टीपू सुल्तान अपनी फौज को यूरोपियन तकनीक के साथ ट्रेनिंग देने में विश्वास रखते थे। टीपू विज्ञान और गणित में गहरी रुचि रखते थे और उनके मिसाइल अंग्रेजों के मिसाइल से ज्यादा उन्नत थे, जिनकी मारक क्षमता दो किलोमीटर तक थी।

जो अंग्रेज टीपू से इतना घबराते थे उनके बनाए झूठे इतिहास को दिखाकर संघ के लोग टिपू का विरोध कर रहे हैं ।सच यह है कि विरोध कर रहे ऐसे लोग ही भारत के निष्पक्ष इतिहास के लिखने पर नंगे हो जाएँगे क्युँकि यही हर दौर में अत्याचारी रहे हैं और इसी अत्याचार को करने के लिये इन लोगों ने टीपू से अंग्रेजों की लड़ाई में अंग्रेज़ो का साथ दिया ।

त्रावणकोर के सवर्ण महाराजा , मराठे और हैदराबाद के निजाम अंग्रेजों के सबसे बड़े मित्र थे जो चारों ने मिलकर एक अकेले टीपू सुल्तान के विरूद्ध युद्व किया जिससे इनकी ऐय्याशियाँ चलती रहें देश जाए भाड़ में , चाहे इसपर अंग्रेजों का राज हो या राक्षसों का ।


ब्राम्हणों की हत्याए करने का आरोप गलत है.
दलित महिलाओं को इन्साफ दिलाने के लिए त्रावणकोर पर हमले में मारे गए थे सेना में शामिल अय्याश ब्राम्हण
दरअसल जो ब्राम्हणों की हत्याएं करने का आरोप टीपू सुल्तान पर है वह त्रावणकोर राज्य में है जहाँ का ब्राम्हण राजा एक ऐय्याश और निरंकुश राजा था और उसके जुल्मों से वहाँ की जनता से छुटकारा दिलाने के लिए टीपू ने उसपर आक्रमण किया और युद्ध में त्रावणकोर की सेना में शामिल ब्राम्हण मारे गये। और अंततः राजा को वहाँ की दलित महिलाओं को न्याय देना पड़ा ।

केरल के त्रावणकोर इलाके, खास तौर पर वहां की महिलाओं के लिए 26 जुलाई का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन 1859 में वहां के महाराजा ने दलित औरतों को शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाजत दी।

इस परंपरा की चर्चा में खास तौर पर निचली जाति नादर की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया और जिनको हक दिलाने के लिए टीपू सुल्तान ने उस राज्य पर आक्रमण किया।
दरअसल उस समय न सिर्फ पिछड़ी और दलित बल्कि नंबूदिरी ब्राहमण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे।

नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था। वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं। लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था। नायर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था।


सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी। पहनने पर उन्हें सजा भी हो जाती थी। एक घटना बताई जाती है जिसमें एक दलित जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी अत्तिंगल ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला।

इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं। 18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए। बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने औऱ यूरोपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं।

धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया। इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कशिश करती रहीं।यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ। ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले होने लगे। जो भी इस नियम की अहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता।

दलित औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते। यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरे आम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ऐसा करते डरें।
1814 में त्रावणकोर के अंग्रेजों के चमचे दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई नादन और नादर महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं।

लेकिन इसका कोई फायदा न हुआ। उच्च सवर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे।आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया। एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश। और ज्यादा महिलाओं ने शालीन कपड़े पहनने शुरू कर दिए। इधर उच्च वर्ग के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया। एक घटना बताई जाती है कि नादर ईसाई महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा। उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े। तभी वे भीतर जा पाईं। संघर्ष लगातार बढ़ रहा था और उसका हिंसक प्रतिरोध भी।सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था।

क्यों न होता ? आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची दलित जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहें। उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में औरतों को ख़ड़ा रखा जाता था। राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृष्यों का भरपूर आनंद लेते थे।


आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया।सवर्ण पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश निकलवा दिया कि किसी भी दलित जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती। अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया। अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई। सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं। इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है।

टीपू सुल्तान ने इसी अन्याय को समाप्त करने के लिए त्रावणकोर पर आक्रमण किया जिससे त्रावणकोर की सेना के तमाम लोग मारे गये जिसे आज ब्राम्हणों के वध के रूप में बताकर उनका विरोध किया जा रहा है उसी युद्व में विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों दुकानों और सामान को लूटना शुरू कर दिया। राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई।

दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया और अंततः 26 जुलाई 1859 को वहाँ के राजा ने दलित औरतों को स्तन ढकने की अनुमति प्रदान की ।टीपू सुल्तान से वही खीज आज निकाली जा रही है ।

ज़रा सोचिएगा कि त्रावणकोर का राजा कोई मुस्लिम होता और दलितों के साथ ऐसा व्यवहार होता तो आज क्या स्थिति होती और यदि टीपू कोई दीपू होते तो ?

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